Tuesday, August 12, 2008

किताब के पहले पन्‍ने पर दस्‍तख़त-सा आदमी







श्रीधर वाकोड़े कौन है, मुझे नहीं पता, पर इसका नाम मैं बरसों से पढ़ता आ रहा हूं। मेरी कई किताबों के शुरुआती पन्नों पर मराठी में उसके दस्तख़त हैं। उसे देखने की इतनी आदत पड़ गई है कि कई बार मैं उसकी तरह दस्तख़त करना चाहता हूं।

अरिहंता ने बताया था कि वह चिकनी का पप्पा है। चिकनी कौन है? उससे बातचीत में पता लगा, आगे किसी बिल्डिंग में रहती है और यहां बस पकड़ने आती है और यहां के लड़के उसे टापने में कोई क़सर नहीं बाक़ी रखते।

अरिहंता कौन है? सिर्फ़ इतना जानता हूं कि मुलुंड चेक नाके के पास उसकी रद्दी की दुकान थी, जो अब वहां नहीं है। उसका असली नाम भी नहीं पता। उसके दुकान का नाम था अरिहंता पेपर मार्ट, तो मेरी स्मृति में उसका नाम यही बस गया है।

मैंने उससे कहा था, मुझे उसके घर ले चलेगा? तो उसे लगा कि मैं भी चिकनी की क़तार में हूं। मैंने कहा, नहीं, उसके बाप के पास? वह बोला, सब लड़की के पीछे और तू बाप के पीछे, सही है बावा।

पर अरिहंता कभी लेकर नहीं गया। मैंने भी फिर कभी पूछा नहीं। श्रीधर वाकोड़े उसके यहां अपनी किताबें बेचता रहा और मैं वहां से उन किताबों को ख़रीदता रहा। यह सिलसिला बारह-तेरह साल पहले शुरू हुआ था। श्रीधर वाकोड़े के दस्तख़त वाली पहली किताब जो मिली थी, वह थी मारकेस की 'नो वन राइट्स टु द कर्नल'। इस तरह उसने मारकेस से परिचय कराया। उस संग्रह की एक कहानी उस वक़्त भी मुझे बहुत पसंद आई थी, वह थी 'ट्यूज़डे सीस्टा'। वह अब भी मेरी पसंदीदा कहानी है। बाद में मारकेस को और पढ़ा, तो पता चला, वह उनकी भी पसंदीदा है। बर्गमान की 'द मैजिक लैंटर्न' और बुनुएल की 'द लास्ट साय' भी वहीं मिली। 'पिकासो इन इंटरव्यूज़', इनग्रिड बर्गमैन की मराठी में आत्मकथा, मैरी पिकफोर्ड, डगलस फेयरबैंक्स, विवियन ली और क्लार्क गैबल की जीवनियां। और एक नई-नवेली एलन सीली की 'द एवरेस्ट होटल'। इन सबमें श्रीधर वाकोड़े अपनी लचकदार साइन और पेंसिल के निशानों के साथ मौजूद है। जहां दुख और उदासी की सबसे गहरी पंक्तियां हैं, किसी मटमैले पुच्छल तारे की तरह उसकी पेंसिल वहां से ज़रूर गुज़री है। जिन पन्नों पर आंख गीली हो जाए, उन पन्नों को शायद बार-बार पढ़ा गया। उनके किनारे मुड़े हुए रहे होंगे, क्योंकि तिकोना मोड़ अब भी वहां निशान में है। उसकी किताबें उसके और मेरे बीच जाने कैसा रिश्ता बनाती हैं।

वह क्या था, कोई कलाकार या कोई संघर्षरत फिल्मकार या कोई नाटककार, अभिनेता, कोई लेखक-कवि या फिर कोई साधारण पाठक? किसी साधारण पाठक के पास तो ये किताबें मिलने से रहीं। कोई नामचीन रहा होगा, इसमें भी शक है, क्योंकि बिल्कुल पास के अरिहंता के लिए वह सिर्फ़ चिकनी का पप्पा था। फिर क्या था वह? अरिहंता की दुकान रोड वाइडेनिंग में उजड़ गई और अरसे से मुंबई अपने से छूटी हुई है। अब रद्दी की दुकानें भी दिखती नहीं। जो दिखती हैं, उनमें अख़बार, फेमिना, कॉस्मो मिलती हैं, कहीं दबाकर रखी कोई पुरानी डेब या पीबी।

जिन किताबों को कोई भी पढ़ा-लिखा शान से अपनी शेल्फ़ में लगाकर रखे, उन किताबों को वह बाक़ायदा पढ़कर या बरसों संभालकर, एक दिन रद्दी में क्यों बेच आता था? एक दोस्त से यह बात की, तो वह जि़ंदगी और मौत के अद्वैत में लग गया- हर किताब को एक दिन रद्दी की दुकान में जाना होता है।

कई बार लगता है कि वह शब्दों से बाहर निकल गया कोई पात्र है, जो शुरुआती ख़ाली पन्ने पर सिर उचकाकर उपस्थिति दर्ज करा रहा हो। या मौन में भटक गया मनुष्‍य हो। या ड्रामे के ठीक पहले परदा खींचने वाला हाथ है, जिसकी उंगलियों की झलक तक हमको नहीं दिख पाती। या कैमरे की नज़र से छूट गया एक भरा-पूरा लैंडस्केप हो या एडिटिंग टेबल पर कट कर गिर गया कोई दृश्य हो। वह आलमारी से निकलकर फुटपाथ पर पहुंच गई कोई किताब ही रहा हो। मेरी किताबों के बीच वह किसी असहाय किसान की तरह लगता है, जिस पर एक-एक टुकड़ा ज़मीन बेचने का बज्जर गिरा हो। अशोक के बाद कलिंग पर राज करने वाले राजा खारवेल की तरह, इतिहास में जिसके पास कोई जीवन नहीं बचा, हाथीगुफा की दीवारों पर गुदा नाम बचा बस। वैसे ही, श्रीधर वाकोड़े भी कोई जीवन था या सिर्फ़ किताबों पर लिखा हुआ एक नाम?

जब भी किताबी कोना पर जाता हूं, श्रीधर वाकोड़े बेसाख़्ता याद आता है। क्‍या आपकी किताबों में भी कोई श्रीधर वाकोड़े रहता है?

9 comments:

anurag vats said...

kitabon ko jin hathon ne chua,dulara,padha aur sraha hota hai,we kin chanon men unhen kabaad men de aate hain, jeewan ki kaun si hatasha aur halat unhen aisa krne pr mazboor krti hai, khna kathin hai...lekin iske bawjood pustakon aur usse padhne-pyar krnewalon ka jewant sambandh banta rhta hai...श्रीधर वाकोड़े hamari book-self men bhi hai...hr jagah hota hai bhai...shyad is fark ke sath ki aapne yaad kiya aur kritagya hain...

Unknown said...

bahut achchha sketch hai geet jee.

ravindra vyas said...

यह अच्छा गद्य है। इसमें कोई मारू अदा नहीं है बल्कि मारक बात है। वह दिल को छूती है और निकल जाती है। उसके छूने का निशान चमकता रहता है। इसी में उसका मर्म भी छिपा है।

नीरज गोस्वामी said...

गीत जी
बहुत समझदारी से एक एक शब्द चयन कर आपने ये पोस्ट लिखी है...लेखन कमाल का है...शुरू से अंत तक रोचक और पठनीय...एक अनजान से रिश्ता कैसे बनता है ये जाना. ...हर बात सीधी दिल में उतरती हुई...
नीरज

Anonymous said...

Bahoot khoob likha hai aapne aur sabse best laga is post ka title.

Nitish Raj said...

really very good, you used fine words with put gold on them...

जितेन्द़ भगत said...

nice

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

umdaa gadya.

अजित वडनेरकर said...

हर किताब को एक दिन रद्दी की दुकान में जाना होता है
उम्दा पोस्ट। और यह पंक्ति तो जबर्दस्त है। ज्ञान का परम लक्ष्य हासिल होने के बाद पुस्तकों का और होना क्या है ....ज़ेन कथाओं में भी कुछ ऐसी ही बाते हैं...मरघट-मसान में धूनि रमाने की उलटबांसी...