Sunday, March 30, 2008

एक बार फिर मदर इंडिया...



वैतागवाड़ी पर पिछली टिप्पणी को पढ़ने और कमेंट करने वाले सभी साथियों का आभार।

इधर कुछ मित्रों ने आग्रह किया कि मदर इंडिया को ब्लॉग पर डाला जाए. इस कविता में जो घटना आती है, वह मेरे शहर मुंबई के पास स्थित उपनगर उल्हासनगर की है. एक दिन ये दोनों औरतें हमारे दरवाज़े पर आ खड़ी हुई थीं. बात 1995 की रही होगी. 1996 से 2001 तक मैंने लगातार कविताएं लिखीं. फिर ब्रेक लग गया. लंबा. 2001 में ही भास्कर ज्वाइन किया और तब से कई शहरों में डेरे डाले. 2005 में भोपाल पहुंचा, तो वहां कुमार अंबुज ने बहुत प्रेरित किया लिखने को. मदर इंडिया उस पारी की पहली कविता थी. वागर्थ ने अक्टूबर 2006 अंक में छापा इसे. और मई 2007 में इस पर भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार की घोषणा हुई. कविता कई मित्रों ने पहले भी पढ़ी होगी, लेकिन इसके साथ मैं उस साल के निर्णायक विष्णु खरे की टिप्पणी भी दे रहा हूं, जो संभवत: कहीं छपी नहीं.

मदर इंडिया
(उन दो औरतों के लिए ‍ जिन्‍‍होंने कुछ दिनों तक शहर को डुबो दिया था)

दरवाज़ा खोलते ही झुलस जाएं आप शर्म की गर्मास से
खड़े-खड़े ही गड़ जाएं महीतल, उससे भी नीचे रसातल तक
फोड़ लें अपनी आंखें निकाल फेंके उस नालायक़ दृष्टि को
जो बेहयाई के नक्‍की अंधकार में उलझ-उलझ जाती है
या चुपचाप भीतर से ले आई जाए
कबाट के किसी कोने में फंसी इसी दिन का इंतज़ार करती
किसी पुरानी साबुत साड़ी को जिसे भाभी बहन मां या पत्नी ने
पहनने से नकार दिया हो
और उन्हें दी जाएं जो खड़ी हैं दरवाज़े पर
मांस का वीभत्स लोथड़ा सालिम बिना किसी वस्त्र के
अपनी निर्लज्जता में सकुचाईं
जिन्हें भाभी मां बहन या पत्नी मानने से नकार दिया गया हो

कौन हैं ये दो औरतें जो बग़ल में कोई पोटली दबा बहुधा निर्वस्त्र
भटकती हैं शहर की सड़क पर बाहोश
मुरदार मन से खींचती हैं हमारे समय का चीर
और पूरी जमात को शर्म की आंजुर में डुबो देती हैं
ये चलती हैं सड़क पर तो वे लड़के क्यों नहीं बजाते सीटी
जिनके लिए अभिनेत्रियों को यौवन गदराया है
महिलाएं क्यों ज़मीन फोड़ने लगती हैं
लगातार गालियां देते दुकानदार काउंटर के नीचे झुक कुछ ढूंढ़ने लगते हैं
और वह कौन होता है जो कलेजा ग़र्क़ कर देने वाले इस दलदल पर चल
फिर उन्हें ओढ़ा आता है कोई चादर परदा या दुपट्टे का टुकड़ा

ये पूरी तरह खुली हैं खुलेपन का स्‍वागत करते वक़्त में
ये उम्र में इतनी कम भी नहीं, इतनी ज़्यादा भी नहीं
ये कौन-सी महिलाएं हैं जिनके लिए गहना नहीं हया
ये हम कैसे दोगले हैं जो नहीं जुटा पाए इनके लिए तीन गज़ कपड़ा

ये पहनने को मांगती हैं पहना दो तो उतार फेंकती हैं
कैसा मूडी कि़स्म का है इनका मेटाफिजिक्‍स
इन्हें कोई वास्ता नहीं कपड़ों से
फिर क्यों अचानक किसी के दरवाज़े को कर देती हैं पानी-पानी

ये कहां खोल आती हैं अपनी अंगिया-चनिया
इन्हें कम पड़ता है जो मिलता है
जो मिलता है कम क्यों होता है
लाज का व्यवसाय है मन मैल का मंदिर
इन्हें सड़क पर चलने से रोक दिया जाए
नेहरू चौक पर खड़ा कर दाग़ दिया जाए
पुलिस में दे दें या चकले में पर शहर की सड़क को साफ़ किया जाए

ये स्त्रियां हैं हमारे अंदर की जिनके लिए जगह नहीं बची अंदर
ये इम्तिहान हैं हममें बची हुई शर्म का
ये मदर इंडिया हैं सही नाप लेने वाले दर्जी़ की तलाश में
कौन हैं ये
पता किया जाए.
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निर्णायक विष्णु खरे का वक्तव्य (PDF, 469 K)
निर्णायक विष्णु खरे का वक्तव्य (GIF, 216 K)

Thursday, March 27, 2008

कौन नीरो के साथ, कौन रोम के साथ...


मैं जानना चाहता हूं
जब रोम जल रहा था
और नीरो बजा रहा था बांसुरी
तब कौन लोग थे उसके आसपास
कौन थे जो सुन रहे थे बांसुरी की धुन
कौन थे
जिनकी आंखें चुंधिया रही थीं
आग से निकलती रोशनी से

मैं जानना चाहता हूं
कौन थे जो पढ़ रहे थे
नीरो के हुनर के क़सीदे
कौन थे जो शोलों को हवा कर रहे थे

कितनी आरामदेह रिहाइशें हवन हुईं उस अग्नि में
कितनी शानदार इमारतें तब्‍दील हो गईं राख के ढेर में
कितने लोगों की हड्डियां बिखर गईं
जैसे धूल
कितने शरीर पिघल गए मोमबत्तियों की तरह

कितने महानाट्य
कितनी दुखांत रागिनियां
प्रेम और निराशा के कितने गीत
उम्‍मीद और छलिया लालच की कितनी छवियां
बदल गईं एक निरर्थक शून्‍यता में
एक भयावह आग से घबराए कितने सपने
लापता हो गए वजूद के पन्ने से

मैं जांचना चाहता हूं
रोम के विनाश से जुड़े सारे रेकॉर्ड्स को
या शायद किसी भी तरह पाना चाहता हूं
दुनिया की सबसे बड़ी आग के पेट में समा गए
लोगों, ढांचों, चीज़ों की फ़ेहरिस्तें

या सिर्फ़ इतना जानना चाहता हूं
जब लगी थी आग
कौन थे वो लोग जो नीरो के साथ थे
कौन थे रोम के साथ.

- ज़ीशान साहिल.

ज़ीशान के साथ मेरा परिचय इस कविता के ज़रिए हुआ था। चार-पांच साल पहले। ये अनुवाद तभी किया था। उससे पहले उनके समकालीन अफ़ज़ाल अहमद सैयद को पढ़ा था। पहल ने एक पुस्तिका जारी की थी, 'शायरी मैंने ईजाद की', उसमें। अफ़ज़ाल, ज़ीशान, सईदुद्दीन, सारा शग़ुफ़्ता ये सारे लगभग एक ही पीढ़ी के कवि हैं। सबने लिखने की शुरुआत सन 75 के आसपास की। आज़ादी के बाद की यह वह पीढ़ी थी, जिसने टूटे हुए सपनों के साथ तरुणाई में प्रवेश किया था। ये सपने पहले इश्‍क़ी ग़ज़लों में बदले, फिर ग़ुस्सैल नज़्मों में। ज़ीशान ने कराची को समर्पित कई कविताएं लिखी हैं। लेकिन ये नज़्में सिर्फ़ कराची की ही नहीं, उन सभी शहरों की हैं, जो कराची की तरह जी रहे हैं। ज़ीशान कहते भी हैं, ये कविताएं मेरी नहीं, मेरे घर, परिवार, मोहल्ले, शहर, देश और उससे बाहर रह रहे दुनिया के उन सभी लोगों की कविताएं हैं, जिनके घबराए हुए सपने वजूद के पन्‍नों से लापता हो रहे हैं।

पाकिस्‍तान पिछले कुछ समय से बराबर ख़बरों में रहा। वहां के मित्र कह रहे थे, उन्‍होंने हाल का सबसे डरावना दिसंबर देखा है, जिसके बारे में ख़बरें कम ही उछलीं। ये कविता बराबर मेरी स्‍मृति में आती रही। पिछले दिनों ज़ीशान से बात हो रही थी। कराची से फोन पर। पाकिस्‍तान के हालात पर भी बात हुई। मैंने इस कविता का भी जि़क्र किया। मैंने पूछा, रोम तो समझ में आ जाता है, ये बताइए, नीरो कौन है...

ज़ीशान हंसते हुए बोले, उसकी बांसुरी की आवाज़ मुंबई में भी गूंज रही है, दिल्‍ली में भी..., बस, हमें तय करना है कि हम किसके साथ होंगे, नीरो या रोम...
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