Saturday, December 19, 2009

फिर कविता के बारे में


पिछली पोस्‍ट पर कुछ बातें उठी हैं, उनके बारे में अपनी राय जल्‍द ही; इस बीच पोलिश कवि चेस्‍वाव मिवोश का एक टुकड़ा, जो कि उनकी किताब 'न्‍यू एंड कलेक्‍टेड पोएम्‍स: 1931-2001' (संस्‍करण : 2003) की प्रस्‍तावना से लिया गया है.


I strongly believe in the passivity of a poet, who receives every poem as a gift from his daimonion or, if you prefer, his Muse. He should be humble enough not to ascribe what is received to his own virtues. At the same time, however, his mind and his will should be alert. I lived amidst scenes of horror in the twentieth century-- that was a reality and i could not escape into a realm of  'pure poetry' as some descendants of French symbolism advised. Yet our hot-blooded reactions to inhumanity rarely result in texts artistically valid, even if such poems as my 'Campo dei Fiori', written in April 1943 in Warsaw when the ghetto was burning, continue to have some value.

I think that effort to capture as much as possible of tangible reality is the health of poetry. Having to choose between subjective art and objective art, I would vote for the latter, even if the meaning of that term is grasped not by theory but by personal struggle. I hope that my practice justifies my claim.

The history of twentieth century has prompted many poets to design images that conveyed their moral protest. Yet to remain aware of the weight of fact without yielding to the temptation to become only a reporter is one of the most difficult puzzles confronting a practitioner of poetry. It calls for a cunning in selecting one's means and a kind of distillation of material to achieve a distance to contemplate the things of this world as they are, without illusion. In other words, poetry has always been for me a participation in the humanly modulated time of my contemporaries.

(Photo by Judyta Papp, Krakow 2002)

Monday, December 14, 2009

आज की कविता के बारे में


आज की कविता के बारे में कुछ भी बोलने से पहले मैं उस समाज के बारे में सोचता हूं, जिसमें मैं रहता हूं, जो कि बोर्हेस के शब्‍दों में ‘स्‍मृतियों और उम्‍मीदों से पूर्णत: मुक्‍त, असीमित, अमूर्त, लगभग भविष्‍य–सा’ है; मैं उस भाषा के बारे में सोचता हूं, जिसमें मैं सोचता-लिखता हूं, जो कि, जैसा भी दिख रहा है, बहसतलब रूप से निरंतर क्षरित और मृत्‍योन्‍मुखी है, जो वंचितों और मजबूरों द्वारा बेबसी में अपनाई जा रही है, तमाम घोषित ‘बूम्‍स’ के बावजूद जो अपनी वर्तमान लिपि के साथ कितने बरसों तक चल पाएगी, कहना कठिन है. ऑक्‍तोवियो पास कहता है कि भाषा सबसे पुरानी और सबसे सच्‍ची मातृभूमि होती है, उसमें यह ज़रूर जोड़ दिया जाना चाहिए कि कविता ऐसी तमाम मातृभूमियों का महाद्वीप है, लेकिन सरलता से पूछा जाए कि यदि यह मातृभूमि नहीं होगी, तो उसका महाद्वीप कहां से होगा?  हम निश्चित भाषाई निर्वासन के पथ पर हैं, जहां कुछ समय बाद, बल्कि कई बार तो अभी भी, अपने अज्ञान को सम्‍मानित करते हुए सरलता, सुपाच्‍यता का आग्रह किया जाएगा और फिर एक स्‍ट्रेटजिक उपेक्षा के साथ छोड़ दिया जाएगा.
बहुत पीछे नहीं, सिर्फ़ चार सदियां पीछे जाएं, तो एक निरर्थक, लेकिन बात करने लायक़, प्रसंग मिलता है- हुमायूं पूरब में कहीं लड़ रहा था कि उसके पास सूचना आई कि दूर समरकंद के पास उसकी सबसे प्रिय पत्‍नी की मृत्‍यु हो गई है. वह बादशाह था, फिर भी उस तक सूचना पहुंचने में सात महीने लगे थे. वह इन सात महीनों तक उसे जीवित मान कर रोज़ उसके लिए तोहफ़े इकट्ठा करता रहा था. ऐसे कि़स्‍से उससे पहले की सदियों में भी हुए होंगे, उसके बाद की सदियों में भी और हमारी इस सदी में भी कमोबेश संभव हों, पर यह निरपराध-सी अज्ञानता का समय नहीं है. माध्‍यमों की तेज़ी और सूचनाओं का विस्‍फोट एक अपराधी-नुमा ज्ञान का प्रसार करता है. दूर हुई घटना की हिंसक प्रतिक्रिया से पड़ोस का जल उठना इसी का मिनिएचर है. इतिहास के आततायियों ने भी बेशुमार हत्‍याएं कीं और अपने समय की सुविधाओं के अनुरूप उनका प्रदर्शन भी किया, लेकिन आज आपको तुरंत दिख जाता है कि एक घंटे पहले ही स्‍वात में एक औरत की पीठ पर हथौड़ा मार-मारकर उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी गई है. उसका बाक़ायदा वीडियो बनाकर दुनिया-भर को दिखाया जा रहा है. क्रूरता को कभी ‘क्‍वांटीफ़ाय’ नहीं किया जा सकता, लेकिन यह क्रूरताओं के प्रदर्शन का सबसे क्रूर समय है, निश्चित ही. प्रदर्शन इस समय का सबसे अश्‍लील आचार है. पूंजी का जादू-भरा यथार्थ और उससे उपजे नव-बाज़ार का ‘सौ फ़ीसदी शर्तिया भले अनैतिकता’ के रवैये ने पूरे माहौल को बाइबल में आने वाली नगरियों सोडोम और गोमोरा की तरह बना दिया है, जहां हर आचार एक अनियंत्रित, अराजक, अनैतिक व प्रदर्शनोन्‍मुखी व्‍यभिचार में बदल जाता है, जहां नज़ाकत निहायत फूहड़ता बन जाती है.
यह उदात्‍तता, अनुभव, सेंसरी, मोहकता, द्रवता और द्रव्‍यताओं के ब्रैंडिग टूल्‍स में बदल जाने का समय है, जहां व्‍यक्ति की ‘सोशल रिस्‍पॉन्सिबिलिटी’ गौण है, ‘कॉर्पोरेट सोशल रिस्‍पॉन्सिबिलिटी’ महत्‍वपूर्ण है. यह स्‍वांग के केंद्र में आ जाने का समय है, जहां हर‍ क्रिया एक डी-ग्रेडेड मल्‍टीग्रेडेशन में तयशुदा अभिनय लगती है. जहां हर सूचना एक टारगेटेड मिसाइल की तरह आप पर गिरती है और आपकी बर्बाद अचकचाहट में अपनी सफलता प्राप्‍त करती है.
तुर्की कवि आकग्यून आकोवा की एक पंक्ति है, ”कविता चींटियों की बांबी में लगी ख़तरे की घंटी है.” मुझे रघुवीर सहाय की एक पंक्ति ठीक इसी के सामने याद आती है,” ख़तरे की घंटी बजाने का अधिकार सिर्फ़ बादशाह के पास है.” कविता में हम वही अधिकार वापस लेने का संघर्ष करते हैं या एक वैकल्पिक घंटी बना रहे होते हैं, जिसकी आवाज़ बादशाह की घंटी की आवाज़ से ज़्यादा साफ़ और ईमानदार हो। और ऐसे समय में, जब बादशाह मनोरंजन के लिए ख़ुद कविता करता हो, कविता को विज्ञापन फिल्मों की कैचलाइन में बदल देता हो, दर्द की एक धुन और आंसू के एक बड़े फोटो के साथ, गुडि़या छीनकर बच्चों के हाथ में बंदूक़ का खिलौना पकड़ा देता हो, कविता की भाषा में आपसे जेब ढीली करने की मनुहार करता हो, रूढि़यों, भ्रांतियों और पूर्वग्रहों के विखंडन के बजाय परमाणु विखंडन पर ख़ज़ाना खोल देता हो, जो बच्चों को चॉकलेट न मिलने पर घर से भाग जाना सिखाता हो, मुक्ति के नाम पर स्त्री की देह को सिसकारियों से छेद देता हो, जो बीच राह रोककर पुरुष की मैली शर्ट, फटे जूते और ख़ाली बटुए का मख़ौल उड़ाता हो, और यह सब जानबूझकर, योजना बनाकर, विज्ञापनों में, कविता की भाषा में करता हो, वह समय कितना ख़तरनाक होगा, अंदाज़ा नहीं लगा सकते। जब बादशाह यह मनवा दे कि मृत्यु और तबाही दरअसल भूख, ठंड, बारिश, बाढ़, रोग, महामारी से नहीं, बल्कि एलियंस, साइबोर्ग्स, नामुराद उल्काओं और रहस्यमयी उड़नतश्तरियों से होती हैं, तो उस समय की भयावहता की कल्पना कर सकते हैं हम। अचरज है कि ये सब कविता की भाषा में भी हो रहा है।
हम इस पूरे यथार्थ को ढो रहे हैं और इससे मुक्‍त होना संभव भी नहीं दिखता. यह सबसे पहले कला की धार को कुंद करता है, विशुद्ध कला का हॉलो बनाकर. फिर यह विचारों का दिशासूचक मुर्ग़ा स्‍थापित करता है, तमाम विचारहीन लोगों को वैचारिकता के चमकीले तमग़े पहनाकर. यह पहले ध्‍वंस का तजुर्बा करता है, फिर सर्व-कल्‍याण की प्रयोगशालाओं को अनुदान देता है. इसके हर क़दम पर लैंडमाइन्‍स बिछी हुई हैं, यह भ्रम के फव्‍वारों से शीतलता देता है. यह हमारी ज्ञात सभ्‍यता का एकमात्र ऐसा समय है, जब भ्रम महज़ एक मानसिक अवस्‍था नहीं, एक राजनीतिक हथियार है.
बंद कमरे में बैठकर पूरी दुनिया का अनुभव कर लेने के ग़रूर के साथ यह आपके अनुभव को ही ब्लिंकर पहनाता है, मस्तिष्‍क अनुभूतियों को जैसे डी-कोड करता है, यह उसी प्रक्रिया पर चोट करता है और एक तरह से अनुभवों की निजी डी-कोडिंग को ध्‍वस्‍त कर देता है.
ऐसे गॉलिएथ के सामने जिसमें शकुनियों की चालाकियां भी भरी हों, कविता क्‍या कर लेगी? जैसे डेविड कॉपरफील्‍ड कहता है- ‘मोर सूप’, वैसे ही कविता भी ‘विरोध का मोर सूप’ मांगेगी. वह ज़्यादा सीधी लेकिन कम सरल होगी, वह जटिल होगी लेकिन उसके जोड़ों का दर्द नहीं दिखेगा, वह तमाम पारंपरिकताओं का मुखर नकार करेगी और मुहावरों को चुनौती और नया अर्थ देगी, वह बहुलताओं को समाविष्‍ट और बहुमतों को निरस्‍त करेगी, स्‍वयं निरस्‍त हो जाने के आत्‍महंता जोखिम तक जाकर. वह तेवरों से भरी तमाम तार्किकताओं से परे होगी लेकिन अराजकताओं से भी दूर होगी, प्रतिबद्धता से नालबद्ध लेकिन असंबद्धताओं को अर्थवान बनाते हुए. छोटी से छोटी संभावनाओं में यक़ीन करना सबसे बड़ी प्रतिबद्धता होती है. वह स्‍वांग्‍य ग़ुस्‍सैल, भ्रामक आत्‍मजयी, हेडोनिस्‍ट सुखयाचक या सशर्त निरीहता में अपने लिए एक घर की मांग नहीं करेगी. इस यथार्थ को देखने-जानने के लिए उसे अत्‍यधिक सरलता का आग्रह छोड़ कठिन कंदराओं की ओर जाना होगा, सुंदरता की '90 परसेंट ग्रैंड सेल' में उसे अपनी तथाकथित पारंपरिक सुंदरता के पैमाने बदलने होंगे, उसे एहतियातन अपनी एफिशिएंसी को इफ़ेक्टिवनेस में बदलना होगा--- जैसा कि एक यूनानी मिथक में एक रानी का जि़क्र आता है, जिसने अपना दाहिना स्‍तन इसलिए कटवा लिया था कि वह पुरुषों के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ी से तीर चला सके--- उसने अपनी कथित/स्त्रियोचित सुंदरता का परित्‍याग कर दिया था.
वर्तमान कविता को अपने रूप, अन्विति, व्‍याकरण, तेवर में सुपाच्‍य स्‍वीकृत-पने को बदलना होगा. उसे वर्तमान और अतीत के पारस्‍परिक-राजनीतिक-पारिवारिक-पारिस्थितिकीय सहवास को नहीं, सहमतियों को संदेह की निगाह से देखना होगा. सहमत लोगों के बीच करुण वृंदगान से विलग हमें असहमत होने की निहायत नई चेन बनानी है. हमारी कविता ढेर सारे शब्‍दों का इस्‍तेमाल करने के बाद भी मूक होने का भान देती है- जैसे टीवी पर म्‍यूट का बटन दब गया हो. उसकी वय और इयत्‍ता को काल-उचित बनाना होगा. बौद्धिकता निजता से नहीं बनती, हमें एक सामूहिक-सामाजिक बौद्धिकता का परिष्‍कार करना होगा. हमारे साहित्यिक समाज को अपरिमेय उपेक्षा से भरे फ़र्स्‍ट हैंड नकार को नकारना होगा. नंबर देने वाली माट्साब ब्रैंड आलोचना तब तक इस कविता को नहीं पकड़ पाएगी, जब तक कि वह अपनी आदतें न सुधार ले. लेकिन कविता पढ़ने और उस पर यक़ीन करने वाले लोग, जो लगातार कम होते जा रहे हैं, उसके साथ खड़े ही रहेंगे.
(यह भारत भूषण अग्रवाल स्‍मृति कविता पुरस्‍कार समारोह के अवसर पर नई दिल्‍ली में 10 सितंबर 2009 को पढ़ा गया वक्‍तव्‍य है. इसका पहला प्रकाशन प्रतिलिपि में हुआ. यहां एक बार फिर. पेंटिंग भोपाल में रहने वाले प्रिय चित्रकार अखिलेश की है.)


Thursday, December 3, 2009

जो मार खा रोईं नहीं


विष्णु खरे की कविता ‘जो मार खा रोईं नहीं’ का एक ख़याल-पाठ

हिंदी कविता के पारंपरिक काव्‍य-आस्‍वादन-पठन-अभिरुचियों की रूढ़ता को विष्‍णु खरे की कविता जिस तरह-जितनी बार-जितने तरीक़ों से तोड़ती है, उनकी कविता के बारे में उतने ही रूढ़ शब्‍द-क्रम में बात की जाती है- मसलन वह रूखे गद्य के कवि हैं, तफ़सीलों का बोझ उनकी कविता को दोहरा कर देता है, ‘अगर कुछ कम कहते या बीच में ही छोड़ देते तो बेहतर होता’, ‘वह कहती है, गाती नहीं’, उनके यहां कविता के भीतर कहानी चलती रहती है जो कई बार कविता को उससे बाहर कर देती है आदि-आदि. एक आग्रह यह भी किया जाता है कि उनकी कविता में प्रवेश से पहले पाठक को ख़ास कि़स्‍म की तैयारी करनी चाहिए. उनकी कविताओं से गुज़रते हुए मुझे बार-बार यह लगता है कि इन कविताओं में अधिकाधिक प्रवेश पाने के लिए सारी तैयारियों को ताक पर रख दिया जाना चाहिए. बिल्‍कुल सहज होकर, जो आ रहा है उसे आने देते हुए, और बार-बार रुकते हुए. जिन शर्तों पर किसी रचना को कविता माना जाता है, उन्‍हें विष्‍णु खरे न केवल पूरा करते हैं, बल्कि वह अपने लिए लगातार नई शर्तें ईजाद करते हैं. जब पाठक एक ख़ास कि़स्म के काव्‍य-पठन-स्‍वभाव के बाद उनकी कविता में उतरता है, जैसा कि ज़्यादातर संभव है, बिना तैयारी से मेरा आशय अतिरिक्‍त पूर्वग्रहों से मुक्ति से भी लिया जा सकता है, तो उसके उस स्‍वभाव को दचका लगता ही है. हालांकि तैयारियों की यह बात भी एक तरह का क्‍लीशे ही है, क्‍योंकि पिछले दो दशक में विष्‍णु खरे की कविता जितनी ज़्यादा पढ़ी गई है, जितनी उस पर बात हुई है और जितना ज़्यादा उनकी काव्‍य-सरणियों व आभासों का अनुकरण किया गया है, वह अकारण ही नहीं, उनकी कविता को हिंदी की मुख्‍यधारा व उस धारा को स्‍टीयर करने वाली कविता बना देता है;  और हिंदी कविता का पाठक, जो भी है जितना भी है, उनकी कविता में जिज्ञासु प्रवेश कर रहा है, उनकी कविता से नए अर्थ और साहस ले रहा है, जिससे उसकी व्‍यापक स्‍वीकृति जो पिछले बरसों में और अब और भी लगातार बढ़ रही है, का भान भी हो जाता है, इसलिए तैयारी-आदि की बात नहीं करनी चाहिए.
कविता के शारीरिक-ऑर्गेनिक ढांचे के भीतर खड़े हो अपने कवि के लिए (और एक तरह से अपने समय के समूचे काव्‍य-कर्म-व्‍यवहार के लिए) जिस तरह की चुनौतियां और कठिन सरणियां खड़ी की जाती हैं, वैसा हिंदी कविता में निराला-मुक्तिबोध-रघुवीर सहाय के बाद विष्‍णु खरे में सचेत, आर्गुमेंटेटिव सलीक़े से संभव दिखाई पड़ती हैं. ये सरणियां एक-दो कविताओं में नहीं, बल्कि कमोबेश हर कविता में होती हैं इसीलिए बड़े कवि एक-दो, आठ-दस कविताओं के कवि नहीं होते, बल्कि हमेशा समग्रता के बोध में होते हैं. लेकिन फिर भी उनके पास एक-दो ऐसी कविताएं होती हैं, जिन्‍हें हम उनके काव्‍य-व्‍यक्तित्‍व या ट्रीडिंग के महती गुणों के बीज की तरह ले सकते हैं. राधाकृष्‍ण प्रकाशन, नई दिल्‍ली द्वारा प्रकाशित विष्‍णु खरे के संग्रह ‘सब की आवाज़़ के पर्दे में’ की यह कविता, ‘जो मार खा रोईं नहीं’, जो कि आगे है और जिस पर मैं अपनी बातें कहूंगा और जो कि मेरी प्रिय कविताओं में से है, न केवल खरे की कविता की, बल्कि समकालीन हिंदी कविता के दृश्‍य-वि‍वेक का आरूपण करती कृति है.
जो मार खा रोईं नहीं
तिलक मार्ग थाने के सामने
जो बिजली का एक बड़ा बक्‍स है
उसके पीछे नाली पर बनी झुग्‍गी का वाक़या है यह
चालीस के क़रीब उम्र का बाप
सूखी सांवली लंबी-सी काया परेशान बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी
अपने हाथ में एक पतली हरी डाली लिए खड़ा हुआ
नाराज़ हो रहा था अपनी
पांच साल और सवा साल की बेटियों पर
जो चुपचाप उसकी तरफ़ ऊपर देख रही थीं
ग़ुस्‍सा बढ़ता गया बाप का
पता नहीं क्‍या हो गया था बच्चियों से
कुत्‍ता खाना ले गया था
दूध दाल आटा चीनी तेल केरोसीन में से
क्‍या घर में था जो बगर गया था
या एक या दोनों सड़क पर मरते-मरते बची थीं
जो भी रहा हो तीन बेंतें लगी बड़ी वाली को पीठ पर
और दो पड़ीं छोटी को ठीक सर पर
जिस पर मुंडन के बाद छोटे भूरे बाल आ रहे थे
बिलबिलाई नहीं बेटियां एकटक देखती रहीं बाप को तब भी
जो अंदर जाने के लिए धमका कर चला गया
उसका कहा मानने से पहले
बेटियों ने देखा उसे
प्‍यार करुणा और उम्‍मीद से
जब तक वह मोड़ पर ओझल नहीं हो गया
24 पंक्तियों और शीर्षक समेत 188 शब्‍दों की यह कविता अगर आठवें दशक या तथाकथित नवें दशक के प्रचलित छायावादी-सिंथेसाइज़्ड डिक्‍शन में लिखी गई होती, तो इसमें मार रोना रोया गया होता, ये बेटियां हदस-हदस कर रोतीं और मोड़ पर ओझल हो गए बाप के लौट आने की झलक दिखा दी जाती, ये लड़कियां अचानक विद्रोह कर देतीं या उम्रो-हालात को छोड़ घर से भाग ही जातीं, बहुत ही सरल तरीक़े से बाप को कविता के भीतर ही सत्‍ता का प्रतीक और बेटियों को कविता के भीतर ही निरीह लोक की तरह दिखा दिया जाता, ‘गुड बॉय बनाम बैड बॉय’ का ‘मायोपिक’ सरलीकरण ड्रा कर लिया जाता;  अचानक इसी दृश्‍य के बीच कोई पेड़ उचक कर बोलने लग जाता, संभव है कि जिस पतली हरी डाली को बाप ने बेंत की तरह इस्‍तेमाल किया, ख़ुद वही पतली हरी डाली इसमें बिसूरते हुए, मनुष्‍य की इच्‍छाओं के अपमान व शमन पर, सर्रियल तरीक़े से कोई बोली-बानी उचार देती; या भाषा की एक फि़ज़ूल-बारीक कारीगरी करके सलीम-जावेद अंदाज़ में बार-बार दुहराया जा सकने वाला एक ‘डायलॉग’ एक्‍स्‍प्‍लोर कर लिया जाता-  यानी कुल मिलाकर एक ऐसा भावुक शामियाना खेंच दिया जाता, जिसमें आप तीसरी ही पंक्ति से कविता से एक ‘हे‍डोनिस्‍ट’ दुख ‘इन्‍हेल’ करने लग जाते और हर पंक्ति के ख़त्‍म होने पर ‘अहा-अहो’ भाववाद से भर जाते. पर ये उस डिक्‍शन में लिखी ही क्‍यों जाती? और आज यह संभावना जताने का तुक ही क्‍या है?  मुझे नहीं पता, यह कविता ठीक-ठीक कब लिखी गई, लेकिन यह 1994 का संग्रह है और इससे पहले कवि का संग्रह 1978 में प्रकाशित हुआ था, इसलिए, मोटे तौर पर, मैं यह अंदाज़ा लगाता हूं कि यह 78 से 94 के बीच के 16 बरसों में कभी लिखी गई होगी. अब इन 16 बरसों में लिखी जा रही हिंदी कविता (जो बाद में आठवें व तथाकथित नवें दशक की कविता के नाम पर अपनी तमाम ख़ासियतों, के साथ स्‍थापित की गई) को याद करते हुए विष्‍णु खरे की इस कविता को पढ़ा जाए, तो इस सवाल में छिपे इशारों तक जाया जा सकता है. जिस समय दृश्‍य में ‘वैसी’ कविताओं का ठुंसापन था, उस समय विष्‍णु खरे एक नए तरह के दृश्‍य-विधान के साथ ऐसी कविता लिख रहे थे, जो ‘वैसी’ कविताओं के बनाए भाव-लोक से एकदम उलटे जा खड़ी होती थीं, जिसमें भावुकता-भावनिकता का कोहराम नहीं मचा था, डायलॉगबाज़ी नहीं थी, प्रचलित भाषाई चमत्‍कार की बैसाखी पा लेने की आकांक्षा नहीं थी, बल्कि देर से ‘डिसाइफ़र’ होने वाला वह ‘मेलन्‍कलिक’ स्‍ट्रोक था, जो वांग कार-वाई जैसे फि़ल्‍मकारों की फि़ल्‍मों में थीम की तरह बैकग्राउंड में बजता है और फि़ल्‍म पूरी होने के बाद दर्शक के मन के फ़ोरग्राउंड पर.
सबसे पहले तो कविता में कविता और उसके रिवीलेशन में फि़ल्‍म माध्‍यम की तकनीकों के प्रयोग पर ध्‍यान दिया जाए. हिंदी कविता में सिनेमैटोग्राफ़ी की बारीक तकनीकों का किसी कवि ने सबसे ज़्यादा, सबसे समृद्ध और सबसे ज़्यादा प्रभावोत्‍पादक प्रयोग किया है, तो वह विष्‍णु खरे ही हैं. ऐसा करके भी उन्‍होंने एक नई सरणी ही बनाई है, क्‍योंकि दृश्‍योत्‍पादन या उसका पुनरुत्‍पादन ही समकालीन कला के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है. शुरुआत की स्‍टैंड-अलोन तीन पंक्तियां एक रियलिस्टिक दृश्‍य बनाती हैं, उसमें फ़ोकस में वही चीज़ें हैं जो होनी चाहिएं- मसलन एक थाना है, जिसका काम तमाम कि़स्‍म के जरायम पर का़बू पाना है, लेकिन अभी-अभी जो अपराध हुआ है उस पर उसकी नज़र नहीं होनी; बिजली का एक बक्‍स है जहां सबसे चपल ऊर्जा का भंडारण और वितरण है, लेकिन जो किंचित ऊर्जाहीन हो गए दो चरित्रों से नितांत अनभिज्ञ होगी और जिसकी गति, पिटाई के इस बिल्‍कुल फ्रीज हो गए दो लम्‍हों के ठीक विलोम में होगी; वहां सड़ांध से भरी नाली है जो दृश्‍य की क्रूरता में है और भव्‍यता के विलोम में खड़ी झुग्‍गी है. यह रियलिज़्म बिना किसी अतिरिक्‍त परिभाषा के है और वाइड एंगल से नैरो या मीडियम शॉट की ओर जाता हुआ कैमरा है. पहले पैराग्राफ़ में कवि लॉन्‍ग शॉट में है, ब्रॉड एंगल है, दूसरे में वह मीडियम या मिडिल शॉट में आता है, जिसमें फ़ोकस में चालीस के क़रीब का बाप और पांच व सवा साल की बेटियां हैं; इसमें जो भाव या वेश-भूषा का वर्णन है, वह उतना ही है जितना मीडियम शॉट में, एक साथ तीन किरदारों को फ्रेम में लेते हुए, संभव हो सकता है- सूखी-सांवली काया, बढ़ी हुई दाढ़ी, हाथ में पतली हरी डाली, ऊपर की ओर देखतीं दो बेटियां और नाराज़ होने की एक क्रिया. अगले पैराग्राफ़ में, ग़ुस्‍सा बढ़ जाता है, पिटाई हो जाती है, कुछ आशंकाएं हैं, विज़ुअल बड़-बड़ की तरह, हर पंक्ति एक नए दृश्‍य की संभावना बनाती है जिसे आप कृष्‍ण-धवल में देख सकते हैं, वहां मीडियम शॉट में कैमरा ‘होवर’ हो रहा है, थोड़ा क्‍लोज़ होता हुआ और छोटी बेटी के सिर पर मुंडन के बाद उग रहे भूरे बाल साफ़ दिख रहे हैं. यहीं कैमरा फिर थोड़ा पीछे होता है, एक बार फिर तीनों दिखते हैं, तीसरे को एकटक देखतीं दोनों बच्चियां, और उसके बाद एक डीप क्‍लोज़-अप, दोनों बच्चियों के चेहरों पर, जहां प्‍यार, करुणा और उम्‍मीद है. यह देर तक टिका रहने वाला क्‍लोज़-अप है, जिसमें सिर्फ़ चेहरे के ही नहीं, मन के भी भाव दिखाए जाने हैं. फिर एंगल बदल कर एक लॉन्‍ग शॉट, जिसमें ओझल होता हुआ बाप हो. पढ़ते हुए इस शॉट को आप एक शॉट पहले भी ले जा सकते हैं.
खरे इस तकनीक को अपनी कविता में एक्‍स्‍प्‍लोर करते हैं, एक नई टेरीटरी बनाते हुए. और अगर कैमरे की इस भाषा को समझा जाए, तो खरे की कविता में आप वह लिरिकल मूवमेंट देख सकते हैं, जो कई बार कहा जाता है कि उनकी कविता में नहीं है. इसीलिए जब ‘कविता का गल्‍प’ में अशोक वाजपेयी कहते हैं, ‘(विष्‍णु खरे की कविता) कहती है, गाती नहीं’ तो अचरज होता है कि इतने विज़ुअल लिरिसिज़्म को पकड़ पाने में ‘समृद्ध’ हिंदी आलोचना क्‍यों बार-बार असफल हो जाती है. किसी सधे हुए फि़ल्‍मकार-सा ऐसा गाता हुआ दृश्‍य-प्रबंध जिसमें स्‍क्रीन-प्‍ले कहीं बाधित नहीं होता, बल्कि उसे एक लय और गेयता अतिरिक्‍त रूप में मिलती है, किस ‘गाते हुए’ कवि ने संभव बनाया है?  यह विज़ुअल लिरिसिज़्म खरे की लगभग हर कविता में मौजूद है. दरअसल, बारीक तफ़सीलों की महत्‍ता स्‍थापित करते हुए, लगभग स्‍लो-मोशन में चलती हुई, एक ‘कोहेसिव’, ‘इम्‍पर्सोनेटेड’ दृश्‍य-रचना करना ही, आज की कविता में, शिल्‍प के स्‍तर पर ‘खरेस्‍क’ (Khare-sque) होना है.
मैं अक्‍सर सोचता हूं कि कविता में जब कोई ‘प्रोटागॉनिस्‍ट‘ होता है, तो उसकी उम्र क्‍यों लिखी जाती है? इस कविता में भी है. तीनों किरदारों की उम्र एक ज़रूरी तथ्‍य की तरह बताई गई है. पांच और सवा साल की उम्र चालीस के जि़क्र के कारण सपोटिंग आंकड़ा है, पर मेरा ध्‍यान ‘चालीस’ पर है. विष्‍णु खरे जैसा कवि महज़ किसी ख़ामख़याली या झोंक की किसी झक में ‘चालीस’ का जि़क्र नहीं करेगा, पर क्‍या यहीं उनके कवि का सब-कॉन्‍शस काम करता है? यह एक मनोवैज्ञानिक शोध का विषय है कि जिस समय हम कविता करते हैं, उस समय किस ‘मानसिक उम्र’ में होते हैं. बहुत सारे लोग बूढ़े हो जाने के बाद भी किशोरावस्‍था जैसा लडि़याते हुए भाव-बोध के साथ कविता लिखते हैं जो कि कविता में स्‍पष्‍ट दिखता भी है, तो कई कवियों को हम लगातार एक नि:स्‍वार्थ, निष्‍कलुष बाल्‍यावस्‍था में पाते हैं. चार्ली चैपलिन मानते थे कि उनके कलाकार की उम्र वही पांच-सात साल के बच्‍चे की उम्र है, जिसकी निगाह से वह पूरी दुनिया को देखते हैं. यह मानसिक उम्र कला के भीतर कंटेंट को आयु-उचित मौलिक दृष्टि से और अन्विति को उसके अनुभव से प्राप्‍त (‘एक्‍वायर्ड’) आयु से नियंत्रित करती है. एक समय के बाद कवि की मानसिक उम्र में बहुत ज़्यादा फेरबदल नहीं होता. वह जहां अपना पोएटिक टेम्‍पो पाता और स्‍वीकार करता है, वह उसी के आसपास रहती है. मेरा मानना है कि कवि की मानसिक उम्र में बहुत जल्‍दी-जल्‍दी और बहुत ज़्यादा बदलाव आना अच्‍छा संकेत नहीं है. हम जिस मानसिक उम्र में रहते हैं, उसी के आंकड़े के प्रति ज़्यादा आकर्षित होते हैं. चालीस का यह आंकड़ा मुझे एक मानसिक अवस्‍था का बोध कराता है. खरे की कविता में आया हुआ ‘बाप’ अक्‍सर इसी उम्र के आसपास होता है. तो विष्‍णु खरे की कविता को स्‍टीयर करने वाली यह उम्र मुझे यही चालीस की लगती है, जहां वह मैच्‍योर्ड, तार्किक और व्‍यावहारिक जान पड़ते हैं. (भावनिक होने की कोई उम्र नहीं होती, लेकिन) यही मैच्‍योरिटी उन्‍हें ऐसा होने से बचाती है. इसीलिए उनकी कविता ऑर्गेनिक स्‍तर पर इतना नहीं बदलती, जितना कि अमूमन देखा जाता है और इसका कारण यह है कि यह ऑर्गेनिक संरचना कवि ने पर्याप्‍त परिपक्‍वता हासिल करने के बाद अर्जित की है. यह खरे का ख़ास गुण है, जो कि इस कविता से साफ़-तर दिखता है और दूसरी कविताओं को पढ़ने में मदद करता है, और यह ‘ट्रांसफ़रेबल’ नहीं है. इसी तरह कविता के पहले पैराग्राफ़ में जो दृश्‍य बनता है, वही खरे के समूचे काव्‍यकर्म की प्रतिबद्धता, जिसे रूढ़ अर्थों में न लिया जाए, व्‍यापकतर दिखाई देती है. उनकी दूसरी कविताओं में भी.
बाप और बेटियां उनकी कविताओं में ख़ूब आती हैं. बेटियां उसी तरह (पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक स्‍तर पर) पिटे होने के बाद के अवसाद में, प्‍यार करुणा और उम्‍मीद में; बाप उसी तरह ख़ामोश क्रोध, बेबसी और करुणाजनक, निस्‍पृह, ‘एग्‍नॉस्टिक’ स्‍वप्‍न देखते. यहां आया हुआ बाप भी कोई क्रूर-खल या इलेक्‍ट्रा-कॉम्‍प्‍लेक्‍स नहीं है, बल्कि वह साधारण निम्‍न/मध्‍यवर्गीय परिवार का नायक/प्रमुख किरदार है, जिसके पास अपना अबूझ क्रोध उतारने के लिए यही दो बच्चियां हैं. कवि यह रहस्‍य बनाकर रखता है कि उसने बेटियों को किस बात पर पीटा है, वह आशंका के जितने कारण बताता है, उनमें प्रमुख तौर पर बच्चियों की ग़लती दिखनी है, लेकिन ये वो ग़लतियां हैं, जिनसे बाप के जीवन-संघर्ष में एकाध प्रकरण और जुड़ जाना होगा. यानी वह निम्‍नमध्‍यवर्गीय बाप अपने जीवन-संघर्ष में एखादा प्रकरण और जुड़ जाने से आया हुआ क्रोध बच्चियों पर उतार रहा है. यहां सिर्फ़ एक पंक्ति – ‘या एक या दोनों सड़क पर मरते-मरते बची थीं’ – उसके जीवन-संघर्ष के साथ उसके भावनात्‍मक-संघर्ष को भी झकझोर देने वाली आशंका की हैं. ज़्यादा शब्‍दों के इस्‍तेमाल का आरोप (??) – मसलन ‘वह कविता में थोड़ा कम कहते तो अच्‍छा होता’ — झेलने के बाद भी खरे, दरअसल, कविता में बहुत सारी बातें नहीं कहते या अनकहा छोड़कर एक ख़ास अर्थ की तरफ़ स्‍टीयर करने की कोशिश करते हैं, जैसे जिस निम्‍नमध्‍यवर्ग का चित्र उन्‍होंने बनाया है, उसमें यह आसानी से दिखाया जा सकता था, कि बाप अपना कहीं और का ग़ुस्‍सा बच्चियों पर उतार रहा है, पर खरे दृश्‍य-चित्रण ही इसीलिए करते हैं कि ऐसी ‘ऑ‍बवियस’ कि़स्‍म की बातों को उन्‍हें कविता में कहना ही न पड़े, पाठक दृश्‍य को देखकर ख़ुद ही समझ जाए. इसीलिए खरे की कविता को लेकर यह कहा जाना कि वह अनकहा नहीं छोड़ते, मुझे ग़ैर-ज़रूरी लगती है. ऐसी तमाम अनकही बातें, जो कवि पाठक के अनुभव और कविता को उसकी ऑर्गेनिक बॉडी से एक्‍स्‍टेंड करने की उसकी क्षमता पर छोड़ देता है, इस कविता में और उनकी दूसरी कविताओं में भी आसानी से, कई बार किंचित पाठकीय श्रम के बाद, देखी जा सकती हैं. जैसे इसी कविता में मार खाई बेटियां जिन्‍होंने शायद घर से ज़्यादा देर बाहर रहने के कारण भी मार खाई हो, घर के भीतर चली जाती हैं और विरोध का विलोम दर्ज करती हैं.
‘विरोध का विलोम’ से मेरा आशय क्‍या है? ऐसी स्थिति, जो आपके स्‍पेस का अतिक्रमण कर रही हो, आपके ज़रूरी कंफर्ट को तोड़ रही हो, या एक कि़स्‍म के बेजा दबाव को हावी कर रही हो, उसके प्रति एक दृश्‍य में आपका मूक, ‘सटल’ या परोक्ष विरोध जताना/अनाभिव्‍यक्‍त अनुभव करना और उसके बाद अगले दृश्‍य में और उसके बाद अपनी कारुणिक बेबसी, बे-चारगी को जानते हुए, ख़ुद को ग़लत मान लेते हुए एक क्रिया द्वारा उस स्थिति को स्‍वीकार कर लेना. जैसा कि इस कविता में ये बच्चियां करती हैं. उन्‍हें पिता से मार पड़ी है, न जाने किस बात के लिए, वे ख़ुद भी उन कारणों को नहीं जानतीं, इसलिए वे मार खाकर चौंकी हुई हैं, चूंकि वे ख़ुद कारण नहीं जानतीं इसलिए ऊपर जताई गई आशंकाएं भी निराधार ही साबित होती हैं, तो अज्ञात-अनजाने कारणों से पड़ी मार ने इन बच्चियों को चौंका दिया है और उसकी पीड़ा है, एक अन्‍याय का आभास है, तिस पर वे ‘रो नहीं रहीं.’ कविता इसके शीर्षक में और ‘न रोने’ की क्रिया में है. न रोना केवल चौंक नहीं है, बल्कि अज्ञात कारणों से हुई पिटाई व अन्‍याय के आभास, जो पांच और सवा साल की बच्चियों को भी होता है और यहां आकर कविता में उनकी उम्र बताए जाने का स्‍पष्‍टीकरण भी मिल जाता है, का विरोध दर्ज करने के लिए है. रोना उस पिटाई को पहली ही नज़र और पहले ही प्रति-कर्म में स्‍वीकार कर लेना है, अगर वे रो देतीं, तो यह विरोध नहीं होता, और फिर कविता भी नहीं होती, कम से कम यह और इस तरह की, वे मार खा रोईं नहीं. पिता मारने के बाद उन्‍हें अंदर जाने के लिए धमका कर चला गया है, दृश्‍य से बाहर ओझल हो रहा है, लेकिन ये बच्चियां अपनी जगह ठिठकी खड़ी हैं. रोती हुई नहीं, बल्कि न रोती हुईं. एकटक देखती हुईं. अबूझ अन्‍याय को बूझने की कोशिश करती हुईं. कविता में न पूछे गए सवालों को पूछती हुईं.
क्‍या आपने कभी बेजा-अज्ञात कारणों से या अकारण किसी बच्‍चे को थप्‍पड़ मारने के बाद उसका चेहरा देखा है, जब वह रोता नहीं, पूरे चेहरे को सवाल बनाकर आपकी ओर देखता है, तब अभी रो देने और उसे रोकने की कोशिश करने वाला वह भाव और पीड़ा और अन्‍याय और अपमान का आभास आप पर क्‍या असर डालता है?  यदि आपमें उतनी संवेदनाएं हुईं, तो या तो आप रो देंगे या उस दृश्‍य से हट जाएंगे. तो ये बच्चियां ‘जो मार खा रोईं नहीं’ न रोकर आपको रुला देंगी.
लेकिन जब झल्‍लाया हुआ पिता न जाने किस कारण से बच्चियों को पीट रहा है और पिटी हुई ये बच्चियां बिना रोए बाप को दूर तक जाता देख रही हैं, एक सवाल मन में यह आता है कि इन दोनों बच्च्यिों की मां इस कविता में क्‍यों नहीं है? हालांकि कविता में पूरा कुनबा ही आए, यह ज़रूरी नहीं, लेकिन कवि ने इस काव्‍य-दृश्‍य यह रहस्‍य ही रहने दिया है कि इनकी मां है भी या नहीं, है तो घर के भीतर है या काम पर कहीं बाहर गई है, या रिश्‍ते-नातेदारों के पास गई है, पर वहां वह पांच और सवा साल की बच्चियों को लिये बिना तो नहीं जाएगी. इस कविता के भीतर के त्रिकोण के ग़ायब तीसरे कोण यानी मां को केंद्र में रखकर देखा जाए, तो इसकी मार्मिकता और बढ़ जाती है. क्‍या इन दोनों बच्‍चों की मां नहीं है, इसलिए पिता को उनकी देखभाल करनी पड़ रही है और काम के घंटों में से बीच-बीच में घर आकर बच्चियों को देख जाया करता है और उन्‍हें घर से बाहर भटकता देख नाराज़ हो रहा है? ऐसे में यह पिता और बेटियों- दोनों की लाचारगी को बहुत गहरे से दिखाती है.  मां की अनुपस्थिति कविता की करुणा में इज़ाफ़ा कर देती है और अनकहे में कविता रहस्‍य रख छोड़ने और पाठक की कल्‍पना पर पूरा यक़ीन करने के विष्‍णु खरे के काव्‍य-स्‍वभाव का एक और आयाम बनाती है.
और विष्‍णु खरे इस कविता को ‘जो मार खा रोईं नहीं’ जैसा शीर्षक देकर, जो कि कविता में कहीं पंक्ति के रूप में नहीं आया और जो कि निराला की प्रसिद्ध कविता की एक पंक्ति है, इसके अर्थों में बढ़ावा कर देते हैं. ‘तोड़ती पत्‍थर’ में यह पंक्ति इस तरह आती है-
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं
निराला की कविता में यह स्‍त्री कवि को देखने से पहले उस भवन की ओर देखती है और किसी को देखता न पा जो मार खा रोई नहीं वाली दृष्टि से देखती है. निराला के यहां भी वही अपमान, पीड़ा, अन्‍याय, विरोध और ‘नेवर से डाय’ वाला चुनौती-बोध है, जो विष्‍णु खरे के यहां है. लेकिन खरे इसे अपने दृश्‍य-बंध में स्‍थापित करते हुए उसके अर्थों को बहुलता देते हैं. निराला की ही तरह विष्‍णु खरे करुणा का एक प्रति-संसार रचते हैं, जिसकी ओर कविता एक उदात्‍त मानवीय आकांक्षा की तरह जाना चाहती है. निराला की ही तरह खरे यहां एक ‘पॉलिटिकल ऐलीगरी’ बनाते हैं जो सत्‍ता के संबंधों को परिभाषित और मनुष्‍य की विवशताओं को अलग-अलग तरीक़े से परिलक्षित करती है. खरे के यहां यह एक ‘ऑटिस्टिक स्‍टेटमेंट’ की तरह आता है.
‘आइरनी’ विष्‍णु खरे की कविता का एक अभिन्‍न स्‍वभाव-विशेषता है. हिंदी के शब्‍दकोश ‘आइरनी’ का अर्थ ‘व्‍याजोक्ति’ से लेकर ‘विडंबना’ तक बताते हैं, लेकिन इस शब्‍द का कोई एक सीधा-सा अर्थ यहां फिट नहीं होता. जैसा कि ‘किंग्‍स इंग्लिश’ में कहा गया है, ‘आइरनी की सौ से ज़्यादा परिभाषाएं दी जा सकती है और उनमें से बहुत कम पर आम सहमत हुआ जा सकता है, पर फिर भी इस शब्‍द का बुनियादी आशय यह है कि धरातल पर दिखने वाला अर्थ और छुपा हुआ अर्थ एक नहीं होता.’ जब विष्‍णु खरे की कविता में आइरनी आती है, तो वह सीधे-सीधे व्‍यंग्‍योक्ति या व्‍याजोक्ति नहीं होती, सीधे-सरल शब्‍दों में ‘एम्‍बीग्विटी’ भी नहीं होती, जबकि वह एक बहुस्‍तरीय थीम, समस्‍यामूलक दृश्‍यता, अर्थ की बहुलता और उनके पीछे छिपा हुआ एक डार्क ह्यूमर होती है. इस कविता की आखि़री चार पंक्तियों –
उसका कहा मानने से पहले
बेटियों ने देखा उसे
प्‍यार करुणा और उम्‍मीद से
जब तक कि वह मोड़ पर ओझल नहीं हो गया
में यही आइरनी दिखती है. बेटियों ने न रोकर जो भावनात्‍मक विरोध किया, उसके बाद उन्‍होंने अपने पिता को एकटक देखा, इस उम्‍मीद में कि वह लौटकर आएगा, अपनी ग़लती मानेगा, पीटने पर अफ़सोस जताएगा और पिता का प्‍यार देगा, वह नहीं आता, बल्कि ओझल हो जाता है और बेटियां उसका कहा मानकर घर के भीतर चली जाती हैं. और मां का न होना इस चौंक, उम्‍मीद और मांग को और बढ़ा देता है.


Friday, November 27, 2009

सेल्फ पोर्ट्रेट


एडम ज़गायेवस्‍की की एक और कविता


कंप्‍यूटर, पेंसिल और एक टाइप राइटर के बीच
गुज़र जाता है मेरा आधा दिन। एक दिन गुज़र जाएगी आधी सदी।
मैं एक अजनबी शहर में रहता हूं और कई बार
अजनबियों से ऐसे मुद्दों पर बात करता हूं जो ख़ुद मेरे लिए अजीब होते हैं।
मैं संगीत बहुत सुनता हूं : बाख़, मालर, शोपां, शोस्‍ताकोविच।
मैं संगीत में तीन चीज़ें देखता हूं : कमज़ोरी, ताक़त और दर्द।
चौथी चीज़ का कोई नाम नहीं।
मैं जीवित या मर चुके कवियों को पढ़ता हूं जो मुझे सिखाते हैं
दृढ़ता, आस्‍था और गौरव। मैं बड़े दार्शनिकों को
समझने की कोशिश करता हूं- लेकिन अमूमन उनके
बेशक़ीमती विचारों की खुरचन तक ही पहुंच पाता।
मुझे पेरिस की गलियों में देर तक चलना पसंद है
और साथ के लोगों को देखना जो ईर्ष्‍या
क्रोध और अनगिनत इच्‍छाओं के कारण रफ़्तार बढ़ा लेते हैं
चांदी के सिक्‍के को देखना
जो एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता है और धीरे-धीरे
अपना गोल आकार खो देता है (उस पर से मिट जाता है सम्राट का चेहरा)
पास ही होते हैं पेड़ जो कुछ कहते नहीं
सिवाय हरियाली के, अद्वितीय संपूर्णता में
काली चिडि़यां नाप लेती हैं खेतों को
स्‍पैनी विधवाओं की तरह सब्र से करती हैं किसी का इंतज़ार
मैं अब जवान नहीं रहा, लेकिन कोई हमेशा मुझसे उम्र में बड़ा रहा
मुझे पसंद है गहरी नींद, जब लेता हूं अपने अस्तित्‍व से विराम
गांव की सड़कों पर तेज़ रफ़्तार में चलाना मोटरसाइकिल
जब खिले हुए दिनों में काले पीपल और मकान ऊंचे होकर घुल जाते हैं आसमान में
म्‍यूजि़यम में कभी-कभार पेंटिंग्‍स मुझसे बात करती हैं
और विडंबनाएं अचानक खो जाती हैं ।
मुझे पसंद है निहारना पत्‍नी का चेहरा।
हर रविवार फ़ोन करता हूं पिता को।
हर दूसरे हफ़्ते मिलता हूं दोस्‍तों से
और इस तरह जताता हूं वफ़ादारी।
मेरे देश ने ख़ुद को एक दानव से मुक्‍त कर लिया। मैं सोचता हूं
दूसरी आज़ादी भी मिले जल्‍द ही।
मैं इस बारे में कुछ कर सकता हूं ? मुझे नहीं पता।
यक़ीनन मैं समंदर का बेटा नहीं
जैसा कि अंतोनियो मचादो ने अपने बारे में लिखा है
लेकिन बेटा हूं हवा, पुदीने और संगीत के साज़ों का
ऊंची दुनिया के सारे रास्‍ते नहीं कटते
चौराहों की तरह मेरी जिंदगी के रास्‍तों से
मेरी जिंदगी जो अब तक मेरी ही है


Thursday, November 26, 2009

वर्मीर

यान वर्मीर की पेंटिंग और एडम ज़गायेवस्‍की की कविता



वर्मीर की नन्‍ही लड़की जो अब काफ़ी प्रसिद्ध हो गई है
मुझे देखती है. एक मोती देखता है मुझे.
वर्मीर की नन्‍ही लड़की के होंठ
सुर्ख़, नम और चमकीले हैं

ओह वर्मीर की नन्‍ही लड़की, ओह मोती
नीली पगड़ी : तुम पूरी तरह रोशनी हो
और मैं बना परछाइयों से
रोशनी नीचे देखती है परछाई को
पुरखों की तरह, शायद तरस खाते हुए.

***

Wednesday, November 4, 2009

narimi narimi said the bird



Nadia Danon.  Not long before she died a bird
on a branch woke her.
At four in the morning, before it was light, narimi
narimi  said the bird.

What will I be when I’m dead? A sound or a scent
or neither. I’ve started a mat.
I may still finish it. Dr. Pinto
is optimistic.: the situation is stable. The left one
is a little less good. The right one is fine. The X-rays are clear. See
for yourself: no secondaries here .

***

The bird wakes her. Lying on her back with her eyes shut, thinking
What’s left apart from the place mat she’s started and may still finish.
What’s left is a wish that the pain will go away
that it will all go away and stop bending over her.
She lies as though she has left her launching pad and is now
moving along the Milky Way and already the planet
from which she was launched is far off, has shrunk till it can no longer be
distinguished from tens of thousands of other stars.
A bird on a branch calls to her and Nadia is lying
wiping away the good and the bad, like a woman who has nearly
finished washing the floor, walking backward toward the door, drawing
the mop toward her, all she has left to do is to wipe away the traces on
the wet floor of her won footprints. The pain is still sleeping: her hostile
body has not woken with her with the sound of the bird, with all its knives.
Even shame, her lifetime companion, has gone. It has ceased to gnaw at her.
Everything is letting go of her and Nadia is letting go of everything,
like a pear from a branch: the pear is not picked but a ripened pear drops.
Right now at four in the morning Nadia is the most alone she has ever been,
not alone like a sick woman hearing a bird in a garden but alone like a bird
with no garden no branch no wing.


-          From The same sea, a novel in verse by Amos oz

Monday, October 26, 2009

चंदन का ब्‍लॉग

उसका कहना है कि उसका नाम चंदन पांडेय है और वह कहानियां लिखता है. और यह भी कि वह बार-बार कही गई बात को एक बार फिर कह देने में कोई गुरेज़ नहीं करता. हम उसके कहे हुए को सच मानते हैं. लेकिन जब वह ब्‍लॉग बनाता है, तो उसका नाम 'नई बात' रखता है. यह एक शालीन-सा विरोधाभास है, जिसके धागे उसकी कहानियों को नये के क़रीने से बांधते हैं. :-)

ख़ैर. उसका नाम चंदन पांडेय है और वह ख़ूबसूरत कहानियां लिखता है और अच्‍छी किताबें पढ़ता है और मेरा दोस्‍त है और अभी-अभी उसने अपने ब्‍लॉग की शुरुआत की है. एक बार जाइए, मुझे यक़ीन है, फिर आप बार-बार जाएंगे.

नीचे प्राइसनर का संगीत है, छोटी लेकिन अद्भुत कंपोजीशन- 'बोलेरो', चंदन के लिए.



Sunday, October 4, 2009

इस साल किसे मिलेगा नोबेल?


लेबनान के उपन्यासकार इलियास खौरी, (जिनका उपन्यास ‘गेट ऑफ़ द सन’ पिछले दिनों पढ़ी सबसे अच्छी किताबों में से एक मानता हूं) ने ओरहान पामुक को नोबेल पुरस्कार की घोषणा के कुछ ही दिनों बाद एक लेख लिखा था, जिसमें कुछ ऐसा याद किया था- ‘2005 में जिस समय नोबेल की घोषणा होनी थी, मैं होटल के एक कमरे में पामुक के साथ बैठा था. पामुक बहुत बेचैन थे, प्रतीक्षा से परेशान. अख़बार उन पर लेखों से भरे हुए थे और उन्हें उस साल नोबेल का दावेदार माना जा रहा था. मैंने उनसे मज़ाक़ में कहा कि इस बेचैनी का कोई मतलब नहीं और इस तरह इंतज़ार करने का अर्थ है कि आपको यह पुरस्कार कभी नहीं मिलेगा. दावेदार के रूप में जिसका नाम मीडिया में उछल जाता है, उसे नोबेल क़तई नहीं मिलता. मैंने पामुक को तुर्की उपन्यासकार यासर कमाल का कि़स्सा बताया, जो नोबेल पाना चाहते थे. ज्यूरी की नज़र में बने रहने के लिए उन्होंने स्टॉकहोम में एक मकान किराए पर ले लिया और वहीं रहने लगे थे, पर उन्हें यह पुरस्कारर कभी नहीं मिला. पामुक इसके जवाब में मुस्करराए-भर थे. उनका नाम नोबेल के दावेदारों में पहली बार आया था.’

पर अगले ही साल पामुक को नोबेल पुरस्कार मिल गया. और खौरी समेत तमाम लोगों की यह धारणा भी टूट गई कि जिसका नाम मीडिया उछाल देता है, उसे यह पुरस्कार नहीं मिलता. बोर्हेस, आर्थर मिलर और रूश्दी के नाम भी मीडिया में उछले थे. बोर्हेस को संभवत: राजनीतिक कारणों से नहीं दिया गया, और मिलर-रूश्दी को उनकी ‘अतिशय लोकप्रियता’ के कारण. ऐसे कई कि़स्से हैं.

ख़ैर! किसे मिलता है, किसे नहीं मिलता है में डूबते- उतराते,  इंतज़ार है कि इस साल किसे मिलेगा?


जब से यह ख़्याल आया है कि अक्टूबर आने-आने को है और फिर आ गया, मेरे दिमाग़ में नाम घूमने लगे हैं. और नेट पर ज़रा खोजबीन की, तो भान हुआ, बहुतों के दिमाग़ में आ ही रहे हैं. जैसे यहां एक पूरी लिस्ट ही बनी हुई है और वोट करके प्रेडिक्ट भी किया जा रहा है. इस सूची में कुछ नाम ऐसे भी हैं, जो मेरे भी दिमाग़ में चल रहे थे. हालां‍कि वहां वोट करने वालों में ज़्यादातर का मानना है कि सूची से बाहर किसी को मिलेंगे.

जो नाम मेरे दिमाग़ में भी हैं उनमें से एक हैं- अमोस ओज़. उन्हें स्पष्ट नामों में सबसे ज़्यादा 24 फ़ीसदी वोट मिले हैं. इजराइल-फ़लीस्तीन के लिए टू-स्टेट सोल्यूशन की वकालत करने वाले ओज़ की चर्चा उनके राजनीतिक वक्तव्यों के कारण जितनी हुई है, उतनी ही उनके लेखन की विलक्षण बारीकी, सहजता और आसानी से पकड़ में न आने वाले वाली, बहुधा अभिधा का भ्रम दे देने वाली आइरनी के कारण भी. यह आइरनी ‘विधाता का नमक’ नहीं है. ओज़ पिछले साल भी मेरी निजी सूची में थे, नोबेल नॉमिनीज़ में रहे या नहीं, यह पता करने का कोई ज़रिया नहीं है. अगर उन्हें नोबेल मिलता है, तो मेरा पाठक, जो कि मैं हूं और सबसे पहले वही हूं, ख़ुश होने का एक और बायस पा लेगा.

उस साइट में फिर हारुकि मुराकामी का नंबर है. 19 फ़ीसदी. मुराकामी उन लेखकों में है, जिसे मैं पिछले कुछ बरसों से लगातार फॉलो कर रहा हूं और कभी लिख कर, कभी दोस्तों के बीच गपियाते, कई बार, अगला नोबेल विजेता मान चुका हूं. हालांकि उसी समय मेरे भीतर का संदेह गहरा भी हो जाता है. मुराकामी की पॉपु‍लैरिटी को ग्राहम ग्रीन की तरह देखा जाता है, और ग्रीन नॉमिनेट होने के बाद भी नोबेल से वंचित ही रहे.

तीसरा नाम फिलिप रॉथ का है, जो अमेरिकी उपन्यासकार है. इसकी तीन किताबें ही पढ़ी हैं, फिर भी इसके लिए मेरी रेटिंग बहुत ऊंची है. इन्होंने एक ही किरदार लेकर कई उपन्यास लिखे हैं और इस तरह दो-तीन किरदारों की अलग-अलग सीरिज बनाई है. ‘अमेरिकन पैस्टोररल’ मुझे बहुत प्रिय है. ‘द डाइंग एनिमल’ मैं पढ़ नहीं पाया, लेकिन इस पर पिछले साल बनी फिल्म ‘एलीजी’ देखी थी. रॉथ की कहानी, बेन किंग्‍स्‍ले का अभिनय और इसाबेल कोइक्सेत का निर्देशन. यहां कोइक्सेत ‘माय लाइफ़ विदाउट मी’ और ‘द सीक्रेट लाइफ़ ऑफ़ वर्ड्स’ वाली नहीं है यानी रॉथ इसमें से बराबर झांकता रहता है. हालांकि रॉथ अमेरिकी है और नोबेल के भाग्य विधाता यूरोपियनों को अमेरिका में साहित्य की ‘तमीज़’ न के बराबर दिखती है. फिर भी मैं चौंक जाने के लिए सहर्ष तैयार हूं.

कार्लोस फ़्वेन्‍तेस भी मेरी नज़र में कड़े और बड़े दावेदार हैं, लेकिन शायद वह तब से ही हैं, जब मारकेस को मिला था. एक बहुत ही अच्‍छा लेखक, अपने ड्यू के इंतज़ार में. आप एक बार 'द डेथ ऑफ़ आर्तेमीयो क्रूस' या 'द ईयर्स विद लॉरा डियास' पढ़ देखें. वह मारकेस के क़रीबी मित्रों में हैं और ऐसा कहा जाता है कि मारकेस कुछ बार उन्‍हें नोबेल के लिए नामांकित कर चुके हैं. इसी तरह मारीयो योसा का नाम भी चल रहा है.

एक और नाम अदूनिस का है, जो कि दुनिया में कई लोगों की नज़र में, नोबेल से ऊपर पहुंच चुके हैं. अदूनिस के नाम से अपना इंट्यूशन यह जोड़ता चलूं कि मुझे लगातार लग रहा है कि इस बार का नोबेल किसी नॉवेलिस्ट को नहीं, बल्कि किसी कवि को जाएगा. और वह कवि भी यूरोप के बाहर का नहीं होगा. यानी नोबेल इस साल भी किसी यूरोपियन को ही मिलेगा. 1994 में केंजाबुरो ओए के बाद किसी ग़ैर-यूरोपियन को और 1996 में वीस्वावा शिम्बोर्स्का के बाद किसी कवि को यह पुरस्कार नहीं मिला है. कवि का ख़्याल बार-बार आता है, लेकिन ग़ैर-यूरोपियन का नहीं. ख़ैर. यह तो सिर्फ़ मेरी अटकलबाजि़यां हैं, पर अदूनिस (जो कि यूरोप के बाहर के हैं) के बाद जिन नामों पर मुझे उम्मीद है, वे हैं एडम ज़गायेवस्की और बेई दाओ. ज़गायेवस्की पोलैंड के हैं, और बेई दाओ अपने चीन-संबंधों के बाद भी अपनी बनावट, बुनावट और स्टैंड में यूरोपियन ही हैं. ज़गायेवस्‍की मेरे प्रिय कवि हैं और अगर निर्णय का अधिकार मेरे हाथ में हो, तो तुरंत दे दूं.

इसी क्रम में एक ख़्याल और- कवियों में तादेयूश रूज़ेविच का नाम क्यों नहीं? शायद (मेरे मन में भी), अदूनिस की तरह रूज़ेविच के बारे में भी मान लिया गया है कि उन्हें नोबेल कभी नहीं मिलेगा, वह नोबेल पुरस्कार से काफ़ी ऊपर उठ चुके हैं. सच है, नोबेल मिल जाना ही सब कुछ नहीं है, कई बड़े लेखकों को नहीं मिला है. बीसवीं सदी के आखि़री हिस्से के साहित्य को जिन दो लेखकों ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया, बोर्हेस और कल्वीनो, दोनों को नोबेल नहीं मिला. वही आइरनी? जो कि ‘विधाता का नमक’ नहीं.

लेकिन यह भी सच है कि नोबेल, नोबेल है. हर साल उतनी ही उत्सुकता. फिर चीर-फाड़ का दौर.

तो ज़गायेवस्की या ओज़? मुराकामी या बेई दाओ? एक नाम तो अंबर्तो ईको का भी चल रहा है. कौन होगा, नतीजा बमुश्किल दस दिनों में आ जाएगा. क्या उन लेखकों में से होगा, जिन्हें मैं पढ़ चुका हूं? (हालांकि पिछले दस बरसों में, जब से मेरी पढ़ाई शुरू हुई है, ऐसा एक ही बार हुआ है कि मेरे पढ़े लेखक को यह पुरस्कार मिला हो. ऑफ़कोर्स, वह पामुक ही था.) या वह लेखक, जिसका नाम भी न सुना हो? (इस न सुने होने में उस लेखक का दोष तो क़तई नहीं होगा. जैसे- जब पिंटर को मिला था, तब कुछ स्वीडी प्रकाशकों ने कहा था कि इस लेखक की कोई किताब तक हमारी भाषा में नहीं और ज्यूरी ने व्यंग्य किया था- इसमें पिंटर या उनकी गुणवत्ता का दोष बिल्कुल नहीं.)

दसेक दिन प्रतीक्षा के. पर उससे पहले 6 अक्टूबर का इंतज़ार, जब बुकर की घोषणा होनी है. शॉर्टलिस्‍टेड एक ही पढ़ी है, कोएत्सी की ‘समरटाइम’ विलक्षण है, संभवत: उसका सर्वश्रेष्ठ और मेरी नज़र में फेवरेट भी; लेकिन सटोरियों का फेवरेट कोई और है.




P.S.
08 Oct
अभी लाइव वेबकास्‍ट में देखा. हेर्ता म्‍यूलर को दिया गया है. जर्मन कवि और उपन्‍यासकार.  :-)

Wednesday, September 30, 2009

आत्मकथा के विरुद्ध

कमरे में घुसते ही उसे देखा. वह, सोफ़े के पास जो एक कॉर्नर रखा है, जिस पर अमूमन एक ट्रे में पानी से भरी मेरी केतली रखी होती है और पास ही हरे रंग का एक मग औंधा, और जहां अक्सर मेरे उंड़ेले जाने से कुछ बूंदें गिरी होती हैं, इन सबकी अनुपस्थिति में वह बैठी थी.

रहस्यकथाओं से अपने पुराने परहेज़ को ज़ाहिर करते हुए इसी पंक्ति में मैं यह कह दूं कि उसके वहां बैठे होने और मेरे उसे देख लेने का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि उसे मरे हुए, कुछ ही दिनों में, सत्रह साल पूरे हो जाएंगे. यह किसी भूत को देखने जैसा नहीं था, वह हवा की तरह नहीं थी, उसने पारंपरिक सफ़ेद कपड़े भी नहीं पहने थे, उसके होने के बैकग्राउंड में कोई डरावना संगीत भी नहीं बज रहा था. फिर भी मैं जैसे ही कमरे में घुसा, उसे वहां बैठे देखा. वह चुप थी. जैसा कि उसे तस्वीरों में देखा है, तब की, जब उसके पास बोलने का वक़्त होता था, ताक़त नहीं.

अगले ही पल उसका ग़ायब हो जाना भी कोई हैरतअंगेज़ बात नहीं. ऐसा होता आया है. वह पहले भी ग़ायब होने के लिए आती रही है. वह जितने भी दिन रही जीवन में, उन्हें इतने कम दिन कहा जा सकता है कि अब इतने समय बाद घूम कर देखा जाए, तो वे दिन कुछ लम्हों से ज़्यादा नहीं लगते. और जीवन के ज़्यादातर लम्हे जीवन में इसीलिए आते हों, मानो उन्हें भुला दिया जाना हो. हम लगातार किसी की तस्वीर न देखें, तो एक दिन उसका चेहरा भूल जाते हैं. और भीतर चेहरे का जो चित्र बनाकर रखते हैं, वह असल से कितना अलग होता है, यह जांचने का हमारे पास कोई ज़रिया नहीं होता. मुझे पता है, मैं उन सारी स्त्रियों के चेहरे भूल चुका हूं, जिनसे दस-बारह साल की उम्र में मैंने शिद्दत से प्रेम किया था. उस स्त्री का भी, जो नवंबर के आखि़री दिनों में बुख़ार से तपते मेरे चेहरे पर झुकी थी, जिसे मैं चुंबन के पहले अनुभव की तरह याद करता हूं; वह भय और कंपकंपाहट अलबत्ता अब भी याद है, जिसे सबने बुख़ार के प्रमाणों-सा माना था.

वे सभी स्त्रियां जिनके लिए स्त्री का संबोधन उनकी उम्र के हिसाब से नहीं, महज़ उनकी क़ुदरती उपस्थिति के लिहाज़ से है, लौटकर इस तरह नहीं आईं कि एक रात जब मैं किताबों से अव्यवस्थित अपने कमरे में घुसूं और एक मोड़ लेकर उस जगह तक पहुंचूं, जहां काग़ज़ों में लिपटे हुए पसंदीदा कि़स्मों के टी-बैग्स पड़े हों, केतली का बटन दबाने की सोचूं, उससे पहले ही उस अजीब आकार वाले कॉर्नर पर बैठी हुई दिख जाएं! वे इस तरह लौटकर नहीं आतीं, शर्मसार और चिंतित करने के लिए नहीं, किसी उल्लास का दाय पाने को नहीं, तुम्हारे आसान-से मायाजालों को उधेड़ने भी नहीं.

क्या़ तुमने इससे कहा था- ‘मैं तुम्हें कभी नहीं भूल सकता’? तो क्या वह इसी बयान को चुनौती देने आई है? यह सत्रह साल से बीच-बीच में आती रही, और कभी कुछ नहीं कहा. एकदम चुप. सत्रह साल लंबी चुप्पी .

बाइबल में जब ईश्वर ने सोडोम नगरी को नष्ट करने का आदेश जारी किया था, तो तीन फ़रिश्ते उसे पूरा करने उतरे थे. उतरते हुए उनमें से दो ने पहले कोसा था, और बाद में जाते हुए आशीष दिया था. तीसरा लगातार चुप था.

शायद वह लंबी चुप्पी का फ़रिश्ता था. जैसे कि ये लड़की, जो सत्रह साल की उम्र वाली एक चुप्‍पी लिए धीरे से उतरती है मुझ पर.

चुप फ़रिश्ते पक्षहीन नहीं होते. वे शायद कोसना और आशीषना से इतर एक तीसरा पक्ष लिए चलते हैं. चुप्‍पी का अपना एक पक्ष होता है. एक चुप पक्ष. 

वांग कार-वाई की एक फि़ल्म में नायक एक खंडहर की दीवार में बने छेद में मुंह लगाकर अपने जीवन का क़ीमती रहस्य बोलता है. फिर घास और गीली मिट्टी से उस छेद का मुंह बंद कर देता है. इससे वह रहस्य हमेशा के लिए उस छेद के भीतर छिपा-सुरक्षित रहेगा. मेरे पास दीवारों में बहुत सारे छेद हैं, पर कोई रहस्य नहीं. तीस से ज़्यादा की मेरी उम्र रहस्यों को निरस्त करती है. और यह निरस्त करना आत्मकथाओं के विरुद्ध्‍ा है.

यह स्‍त्री जो यहां थोड़ी देर पहले आई थी, यह भी कोई रहस्य नहीं, क्योंकि मैं इसका चेहरा भी भूल चुका हूं और पक्का नहीं कह सकता कि यह वही थी, जो सत्रह साल से इसी तरह ग़ायब हो जाने के लिए आती रही. रहस्यकथाओं से मेरा पुराना परहेज़ है. मैं उनका आखिरी पृष्‍ठ पहले पढ़ना चाहता हूं. पर हर कहानी आखिरी पृष्‍ठ तक पहुंचे, यह कोई ज़रूरी है क्‍या? कुछ कह‍ानियां मेरी उम्र से लंबी हैं. मैं उनकी जिल्‍द में बंधने का अनिच्‍छुक बीच के पन्‍नों में से एक हूं.

रहस्‍य मेरे भीतर से होकर गुज़रेगा, लेकिन उसकी अंतिम परिणति तक मैं उसके साथ नहीं रह पाऊंगा.

हम दोनों एक ही जिल्‍द में रहेंगे, लेकिन हमारे बीच कई पन्‍नों का फ़ासला होगा. 

केतली का बटन दबाकर चालू करता हूं. पानी गरम होने की सनसनाहट गूंज रही है. मैं यह तय नहीं कर पाता कि हरी चाय पीनी है या लेमन. डिब्बे में सिर्फ़ एक सुगर क्यूब बची है. उस औरत के पैर जहां लटक रहे थे, वहां एक टी-बैग गिरा हुआ है. मैं किताबों के बीच से एक और मग उठाता हूं. उसमें वह टी-बैग डालता हूं. सुगर क्यूब भी. उसे घुलता वहीं रख देता हूं.

और दूसरे मग में बिना शक्कर की अपनी चाय लिए बाहर बाल्कनी में चला जाता हूं. सड़क पर पीली बत्तियां हैं, कुछ ठीक पेड़ों के सिर पर चमक रही हैं और नीचे सड़क पर रोशनी के साथ छायाएं भी फेंक रही हैं. इनसे भी एक रहस्यलोक बनता है, रात को आधा चमकता हुआ.

हो सकता है, सत्रह साल बाद वह आई हो पास खड़े हो एक कप चाय साथ पीने के लिए.


Friday, September 25, 2009

दान्‍सा दान्‍सा

जब कोई आपको नाचता देखना ही चाहता हो, तो क्‍यों नहीं बत्तियातो की स्‍टाइल में पूछता. क्‍यों नहीं कहता-  वोयल्‍यो वेदर्ती दान्‍सारे, कोमे ले ज़ीन्‍गारो देल देत्‍ज़र्तो...
क्‍यों नहीं, बोलो, क्‍यों नहीं ?




Sunday, September 20, 2009

जब उसका मन भर जाता है


उसका कोई एक नाम नहीं है। वह किसी एक शहर में नहीं रहती। उसका कोई एक देश नहीं है। वह अपने लिए किसी ब्रह्मा की मोहताज नहीं, वह अपना विधान ख़ुद लिखती है। शिव की ज़रूरत भी नहीं, विष्णु की भी नहीं। वह ख़ुद ही पालती है ख़ुद को और अपनी ही तीसरी आंख के सामने खड़ी हो जाती है एक दिन, जब उसका मन भर जाता है... हर ब्रह्मांड में ग्यारह शिव होते हैं, उनमें से सिर्फ़ एक के पास तीसरी आंख होती है, वह जब तक रही, उसी एक को पाने के लिए भटकती रही और अंत में वह एक ख़ुद उसी की नसों के भीतर बने कैलाश में रहता मिला। वह दुर्गा का एक सौ चौथा नाम थी- आत्मरूपविनाशिनी... वह एंटीगोन है, जो हर जन्म में राजा  का हुक्म तोड़ेगी और मारी जाएगी.



- बहुत सुंदर थी वह?

- हां, काफ़ी। इतनी कि देखते ही नीयत मचल जाए।

- उसकी तस्वीरें तो देखी थीं हमने।

- उसकी कविताएं भी पढ़ी होंगी?

- पढ़ी तो हैं, लेकिन हम लोगों को उसकी तस्वीर ज़्यादा अच्छी लगती थी।

- तुम्ही को नहीं, सब ही को। उसके बारे में कोई कहता था कि एक बार उसने एक संपादक के पास अपनी तस्वीर के बिना कविता भेजी, तो वापस आ गई। दूसरी बार उसने अपनी तस्वीर के साथ वही कविताएं भेजीं, तो अगले ही अंक में छप कर आ गईं।

- हां, जादू तो था ही उसकी तस्वीर में। हम सोचा करते थे, यह सचमुच इतनी सुंदर है या फोटोग्राफर का कमाल है या किसी बीते ज़माने के एलबम से कुछ मार लिया गया है...

- नहीं, वह सच में सुंदर थी और उससे लोगों ने यह बात कई बार कही भी थी। उसे पता भी था कि वह सुंदर है। यह भी पता था कि सुंदरता को किस तरह पेश किया जाता है। वह कविताएं लिखती थी, यही ग़लत था। अगर वह कोई किताब लिखती, मसलन ‘सिर्फ़ चेहरा दिखाकर सफल हो जाइए’ या ‘कविताओं को इस तरह बेचिए’, तो उसका ज़्यादा नाम हो सकता था।

- लोग उसके बारे में जो कहते थे, वह सही था?

- कौन-सी बात?

- यही जो तुम अभी बता रहे हो। जैसे उसे पता था, अपनी सुंदरता का इस्तेमाल करना। या कि वह बहुत अच्छी सेल्सगर्ल थी।

- हर लड़की को पता होता है, अपने चेहरे का इस्तेमाल कैसे किया जाए। जब आप किसी भी तरह सफल होने की ठान लेते हैं, तो आपको भी यह हुनर आ जाता है।

- हाथ क्यों काट लिया था उसने?

- पता नहीं।

- कहते हैं, बहुत परेशान थी वह?

- पता नहीं। ख़ुशी-ख़ुशी तो हाथ काटा नहीं होगा!

- तुम भी उससे प्यार करते थे?

- कौन बेवक़ूफ़ उसकी तमन्ना ना करता होगा?

- हां, सफल भी थी।

- पर उसे ऐसा नहीं लगता था।

- क्यों?

- उसे लगता था, वह जितना डिज़र्व करती है, उतना उसे नहीं दिया जा रहा। उसे अभी और पुरस्कार चाहिए थे, वह चाहती थी कि उस पर अभी और लिखा जाए, उसके लिखे को, न कि दिखे को, गंभीरता से लिया जाए।

- जहां तक मुझे मालूम है, उसे पर्याप्त गंभीरता से लिया जाता था।

- नहीं, लोग उसे संदेह से देखते थे।

- वह लड़की थी।

- हां, लड़कियों की सफलता को संदेह से देखा जाता है।

- बिल्कुल, लड़की होना ही संदिग्ध होना है। उसकी लियाक़त को मंज़ूरी नहीं मिलती।

- लोगों को लगता था कि वह सुंदर है, इसीलिए उसे छापा जा रहा है। उसकी चीज़ों को अच्छा बताया जा रहा है।

- वैसे, यह बात पूरी तरह ग़लत भी नहीं थी।

- नहीं, उसमें दम था। उसके शब्द बहुत बलवान थे।

- महाबली शब्द? ख़ैर, उसमें स्त्री होने का इतना सियापा क्यों था?

- क्योंकि वह स्त्री होने के दुख से भरी हुई थी। वह अपने भीतर की स्त्री के मरने से बहुत क्षुब्ध थी। जिस दिन वह मरी थी, उस दिन सिर्फ़ वही नहीं मरी थी।

- हां, उसने अपने बेटी को भी मार दिया था।

- हुम्म। पहले उसने उसके हाथ की नस काटी थी, फिर अपनी।

- कैसी कवि थी! हत्या की उसने।

- अगर वह कवि न भी होती, तो भी वह हत्या ज़रूर करती। अगर वह अभिनेत्री होती, तो भी। अगर वह बंबई में होती, तो भी यही करती। शंघाई में होती, तो भी और चिकागो में भी वह यही करती।

- तुम मिले थे उससे?

- मैं उसके साथ तीन महीने रहा था।

- झकास! तब तो बहुत मज़ा आया होगा।

- नहीं, वह बेड में बहुत ख़राब थी, मेरे चूमते-चूमते सो जाती थी... एक्चुअली, मैं उससे परेशान हो गया था और एक दिन उसे छोड़कर आ गया था। उस दिन उससे मुझसे कहा था, मैं तुमसे तंग आ गई हूं।

- तुम दोनों एक-दूसरे से तंग आ गए थे?

- लगभग। वह चाहती थी, मैं पुरुषों जैसा व्यवहार न करूं, जबकि वह अपना स्त्रियों वाला व्यवहार कभी बदल नहीं पाई। अगर उस समय मैंने उसे छोड़ा नहीं होता, तो शायद वह मेरी हत्या कर देती।

- इतनी हिंसक थी?

- नहीं, वह बहुत निराश थी।

- लेकिन उसे किसी चीज़ की कमी न थी।

- बहुत सारी चीज़ों की। उसे और नाम चाहिए था, उसे ढंग के पैसे चाहिए थे।

- उसका पति तो अच्छा-ख़ासा कमाता था।

- हां, पर वह समझौता नहीं करना चाहती थी।

- बाहर वालों से कर सकती थी, घरवाले से नहीं?

- उसने बाहर वालों से भी समझौता नहीं किया था।

- फिर कैसे इतनी जल्दी स्थापित हो गई थी?

- तुम भी उसे संदेह से देख रहे हो?

- क्यों न देखा जाए? और भी साले कब से लिखे जा रहे हैं, उन्हें तो घंटा नहीं मिला। दुनिया के सारे पुरस्कार उसी को कैसे मिल रहे थे?

- उसमें दम था। उसकी कविताएं कमाल की थीं।

- लेकिन वे तुम्‍हारी कविताओं से बहुत मिलती-जुलती थीं...

- ऐसा बहुत-से लोग कहते हैं।

- लोग तो यह भी कहते हैं कि तुम ही उसके नाम से कविताएं लिखा करते थे।

- नहीं, मैं उतनी अच्छी कविताएं नहीं लिख सकता। मैंने कोशिश की थी, एक-दो बार उसकी कविताओं में सुधार करने की। वैसे, सच में कुछ लाइनें मेरी ही होती थीं...

- फिर?

- वह मुझसे ज़्यादा तेज़ थी। मुझसे पहले चीज़ों को पकड़ लेती थी।

- फिर भी तुमने उसे छोड़ दिया?

- दरअसल, उसी ने मुझे छोड़ा था।

- उसका माथा तिकोना था, सामुद्रिक कहता है, ऐसी लड़कियां सिर्फ़ मित्र हो सकती हैं, एकाध बार के बाद दूर हो जाने वाली... ऐसे भी, वह साथ रहने लायक़ नहीं थी।

- वह कहीं भी रहने लायक़ नहीं थी।

- हां, अगर वह अमेरिका में रहती, तब भी ख़ुदकुशी करती। सिंगापुर में भी और भारत में भी।

- हां, अगर फिल्मों में होती, तो भी। राजनीति में होती, तो भी। और अगर गृहिणी होती, तो भी।

- अच्छा हुआ, मर गई। शायद वह ऐसी ही मौत चाहती थी...

- जि़ंदगी हमें कभी अमर नहीं बनाती, एक अच्‍छी, रहस्‍य से भरी मृत्‍यु हमें अमरता देती है. उसकी बेचैनी थी, शायद ऐसी ही तलाश करने की... वह चाहती थी कि टेलीफ़ोन का रिसीवर टंगा ही रह जाए, जब उसे मौत आए, उस तरफ़ कोई उसकी आखि़री सांस की आवाज़ को बेतहाशा बेबसी में सुने और तड़पे...

- यातना का महासुख?

- नहीं, जीवन का वैंडेटा.

-  इच्‍छा का हायकू?

-  जीवन का महाकाव्‍यात्‍मक विकल्प,  सारे ईश्वरों को चुनौती देता...

देखो खिड़की से झांक कर
बाहर कोहरा छाया हुआ है
यह तुम्हारी आंखों में चुभ जाएगा अभी
और फिर तुम कभी कुछ नहीं देख सकोगे...

पेंटिंग : पोलिश चित्रकार तमारा दे लेम्पिका



संगीत : शोस्‍ताकोविच, सिम्‍फनी नंबर 5





Friday, September 18, 2009

द क्‍वेस्‍ट फ़ॉर द सेल्‍फ़


All novels, of every age, are concerned with the enigma of the self.

Man hopes to reveal his own image through his act, but that image bears no resemblance to him. The paradoxical nature of action is one of the novel’s great discoveries. But if the self is not to be grasped through action, then where and how are we to grasp it? So the time came when the novel, in its quest for the self, was forced to turn away from the visible world of action and examine instead the invisible interior life.

Joyce analyzes something still more ungraspable than Proust’s “lost time”: the present moment. There would seem to be nothing more obvious, more tangible and palpable, than the present moment. And yet it eludes us completely. All the sadness of life lies in that fact.

The more powerful the lens of the microscope observing the self, the more the self and its uniqueness elude us; beneath the great Joycean lens that breaks the soul down into atoms, we are all alike.

But if the self and its uniqueness cannot be grasped in man’s interior life, then where and how can we grasp it? Can it be grasped at all? Of course not. The quest for the self has always ended, and will always end, in a paradoxical dissatisfaction.

-from The Art of the Novel, Milan Kundera, F&F.



Thursday, September 3, 2009

कज़ुओ इशिगुरो : संगीत हमसे वादा करता है


हर सुख के लिए संगीत है, हर दुख के लिए भी. सांध्‍यसंगीत में उदासी और अवसाद जाने क्‍यों आ जाता है. मैंने किसी के लिए सेरेनेड जैसा कुछ नहीं बजाया कभी. आता भी नहीं. सेरेनेड सुने हैं, पढ़े हैं. और महसूस किया है, रात के वीराने में अकेली गूंजती हुई वायलिन की आवाज़, जो, हस्‍बमामूल, कलेजों का निशाना ताड़कर निकलती होगी. 'लव इन द टाइम ऑफ़ कॉलरा' में फ़्लोरेन्तिनो बजाता है, फ़रमीना के मकान के नीचे, लाइटहाउस के पास, और एक बार मीलों दूर से, तो महसूस करता है कि वह उसकी वायलिन के तारों को ख़ुद ही छेड़ रही है, उसकी आवाज़ सुनकर बाल्‍कनी में आ रही है. पता नहीं, हममें से कितनों ने अपने प्रेम के लिए संगीत बजाया होगा, गिटार के तार के कटाव को उंगलियों पर महसूसा होगा, घुप्‍प अंधेरे में किसी छत पर खड़े होकर माउथ ऑर्गन को हल्‍के से फूंका होगा... जब भी हम संगीत सुनते हैं या बजाते हैं, वह हमसे कुछ वादा करता है, वह हमें कुछ देना चाहता है, या हम उससे कुछ पाना चाहते हैं.

अभी कुछ दिनों पहले कज़ुओ इशिगुरो को पढ़ा. उनका नया कहानी-संग्रह. 'नॉक्‍टर्न्‍स'. नाम से ही ज़ाहिर है कि इसमें संगीत होगा. आपस में गुंथी हुई पांच कहानियां हैं और दो कहानियों में किरदार लौट कर आते हैं. बीते ज़माने का एक सुपरस्‍टार गायक है, जो अब वेनिस में उपेक्षित बैठा है. वह हनीमून के लिए वेनिस आया था और अब दुबारा, 24 साल बाद, पत्‍नी के साथ आया है. यह पत्‍नी के साथ उसका आखि़री सफ़र होगा. फिर दोनों अलग हो जाएंगे. उसे 'कमबैक' करना है, एक बार फिर संगीत की दुनिया में छा जाना है, पर बूढ़ी पत्‍नी के साथ ऐसा नहीं कर सकता. मीडिया में कवरेज के लिए उसे एक जवान पत्‍नी चाहिए होगी, और वह अलग होने के लिए पत्‍नी को राज़ी कर चुका है. वेनिस में उसे एक नौजवान नौसिखिया नायक संगीतकार मिलता है, जो आखि़री रात उसके साथ गिटार बजाता है और बूढ़ा गोंदोला में बैठकर अपनी पत्‍नी की पसंद के गीत गाता है. सूनी रात में पानी की सड़क पर बैठ जब वह महान गायक सेरेनेड शुरू करता है, तो उससे पहले बेतहाशा भय में गला खंखारता है, सिर झुकाए देर तक चुप रहता है और बिना किसी इशारे के अचानक गाना शुरू कर देता है. संध्‍या का प्रेमगीत ग़र्द से सने बालों से छिपे चेहरे की मानिंद हो जाता है. ऊपर होटल के कमरे में गीत सुनती उसकी पत्‍नी रोने लगती है. नायक नौसिखिया ख़ुश हो जाता है- वी डिड इट. वी गॉट हर बाय द हार्ट. पर क्‍या बूढ़ा भी ख़ुश था, क्‍या उसकी स्‍त्री गानों से दिल के चिर जाने पर ही रोई थी?

ढलती हुई उम्र की एक स्‍त्री है, जो उस गायक के गीत सुना करती थी, जब वह बहुत लोकप्रिय था. कभी न लौटकर आने वाले पति की जब भी याद आती, वह उसके रिकॉर्ड बजाती. एक-एक शब्‍द दुहराती और भूल जाती कि किस समय वह रोती हुई नहीं थी. संगीत प्रतीक्षाओं को स्‍वर देता है, ताक़त भी. उसका छोटा बेटा, जो किसी जाने हुए-से भविष्‍य में एक दिन उसी गायक, जो गुमनाम हो चुका होगा, के साथ गोंडोला में बैठ गिटार बजाएगा, तब वह संगीत से सुकून मांगेगा या जुनून?

इशिगुरो की ये कहानियां इसी संघर्ष पर हैं- हम संगीत से क्‍या पाना चाहते हैं और जि़ंदगी हमें क्‍या दे देती
है.

पांच कहानियों का यह संग्रह अवसाद के जिस 'लो' से शुरू होता है, वहीं आकर ख़त्‍म भी होता है. पांच ऐसी कहानियां, जो एक ही जिल्‍द में हों, और 'सा रे ग रे सा' बना दें, इनके बीच कोई छिपा हुआ सुर भी हो, जो दरअसल कंपन की शक्‍ल में पसलियों के बीच भटक जाने को अभिशप्‍त हो, जब आप पढ़ें, तो अपने निजी सेरेनेड्स खोजने लग जाएं, रात की नीरवता में सड़क पर निकलें, और उसके संगीत से अपने हिस्‍से का पाना चाहें.

पर संघर्ष तो यहीं होता है- संगीत से हमें क्‍या पाना है, जीवन ने हमें क्‍या देना है.

इशिगुरो मुझे पहली बार अच्‍छा लगा है. उसकी भाषा पहली बार किसी खरे तालाब की तरह लगी है- रात में न दिखने वाले तालाब की तरह, जिसमें कोई पौधा कभी नहीं लगा, कोई कुमुदिनी कभी नहीं खिली, लेकिन फिर भी उस पौधे, उस कुमुदिनी के डोलने की आवाज़ गूंज जाती है.

इशिगुरो इस एक ही किताब से यासुनारी कवाबाता के कितना क़रीब पहुंच जाता है. हालांकि मेरी समझ में नहीं आता कि क्‍यों 'रिमेन्‍स ऑफ़ द डे' और 'नेवर लेट मी गो' की तरह यहां भी उसके नैरेटर जितना बोलना चाहते हैं, उससे कहीं ज़्यादा बोल जाते हैं, बार-बार न चाहते हुए भी... (वैसे, मुझे यह भी नहीं समझ में आता कि क्‍यों हर पांचवें पेज पर पामुक मुझे चौंका देना चाहते हैं या क्‍यों हर दूसरे उपन्‍यास में मुराकामी अपनी बिल्‍ली की खोज में निकल पड़ते हैं...)

Monday, August 10, 2009

बाबा बोर्हेस

कविता लिखने के उतने तरीक़े, गुण-धर्म या सिद्धांत हो सकते हैं, जितना कि दुनिया-भर में कवि.

Time is the substance from which I am made. Time is a river which carries me along, but I am the river; it is a tiger that devours me, but I am the tiger; it is a fire that consumes me, but I am the fire.

Every time I'm faced with a blank page, I feel that I have to rediscover literature for myself. I have given a major part of my life to literature and I can offer you only doubts.

Friday, August 7, 2009

तीन अज़रबैजानी गाने

azerbaijan painting Pictures, Images and Photosसब्र हो तो सुनें, कुछ याद आता है क्‍या?




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Monday, July 27, 2009

तुम्‍हारा शुक्रवार


तुमने कहा था कि तुम पेड़ इसलिए नहीं हो
कि तुमने कभी पत्‍ते नहीं पहने
फिर भी मैं तुम्‍हारी छांव में बैठा
और तुम्‍हारे पत्तों से ढंका अंधेरा देखा

मैं तुम्‍हारी तस्वीर कभी नहीं बना सकता
कुछ आकार मैंने इससे पहले कभी नहीं जाने
इतने ज़्यादा कोण मिल जाएं
तो सिर्फ़ वृत्त बनता है

जो हमने साथ गुज़ारा
इस पूरे दिन को भविष्य में प्रवेश के लिए
एक छद्म नाम चाहिए होगा

*

हम अपनी देह एक-दूसरे से छिपा ले जाएंगे
किसी दिन हम अपने शब्‍दों से बनाएंगे
एक-दूसरे का रूप
और बिना बताए अपने पास रख लेंगे

तुम हर सुबह मेरी आवाज़ सुनोगी
जो मैंने तुम्‍हारे कानों तक नहीं भेजी
एक दिन तुम्‍हारे पास अपनी कोई देह न होगी
सिर से पांव तक मेरी लहराती हुई फुसफुसाहट होगी वह देह
मेरी आवाज़ की गूंज से बनी मीनार होगी तुम्‍हारी आत्‍मा

हम कभी नहीं मिले फिर भी
जो हमने साथ गुज़ारा
इस पूरे दिन को भविष्‍य में प्रवेश के लिए
भविष्‍य की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी

जैसे तुममें समाने के लिए तुम्‍हारी ज़रूरत भी कहां पड़ी थी मुझे

इस धरती पर तुम कहीं नहीं रहती, सिवाय मेरी बातों के
और मैं भी कहीं नहीं हूं सिवाय तुम्‍हारी बातों के
हम दोनों ने ही घर बदल लिया है.

*






Wednesday, April 29, 2009

ट्रेन में एक शाम

वह जिस तरह लेटा था, उसे युवा हो जाना चाहिए था.
वह स्‍त्री इस तरह उस अधेड़ की मां लग रही थी.


बाहर कुछ नहीं दिख रहा था. ट्रेन को पता था, कहां जाना है, इसीलिए वह बिना हांफे दौड़ रही थी. खिड़की पर टंगा परदा अचानक उठ जाता, पर हवा जैसी कोई चीज़ नहीं आती. वह भीतर ही भीतर थी और अपने आप शुद्ध हो जाती. शीतल भी.
एक तरफ़ की खिड़की आईने की तरह हो गई थी. उसमें वह आदमी, वह लड़की दोनों दिख रहे थे.

पहले पहल वह आदमी खांसा था. किसी ने ध्‍यान नहीं दिया. वह लड़की बार-बार छोटे कांच वाला चश्‍मा संभालती, इस संभाल के बीच किताब के पन्‍ने पलट लेती, इसी बीच एकाध बार वह सिर उठाकर देख लेती, उसके चश्‍मे के कांच में छत पर लगा छोटा-सा लैंप प्रकाश का बिंदु बनकर चमकता. मैंने एकाध बार उसकी किताब की तरफ़ देखा. उसने एक बार भी मेरी तरफ़ नहीं देखा. मैं उसे उसकी ओर देखना रोक चुका था. मैं उसे आईने में बदल गई दूसरी खिड़की से देखता रहा. मैं उसे देख रहा था, इस तरह, जैसे कहीं और देख रहा हूं, ट्रेन से बाहर, जबकि वहां कुछ नहीं दिख रहा था. वह किसे देख रही थी, इस तरह, जैसे कहीं और देख रही हो, किताब के भीतर, जबकि वहां कोई चित्र न रहा होगा.

पहले पहल वह आदमी खांसा था. किसी ने ध्‍यान नहीं दिया. किताब में देखती उस लड़की ने भी नहीं. फिर वह और ज़ोर से खांसा. फिर वह खांसता चला गया. साइड की दो सीटों पर वे आमने-सामने थे. इस तरफ़ से हमने उसे देखा. हमारे देखने से पहले उस लड़की ने किताब से बाहर आकर उसे देखा.

खांसी की तमाम स्‍मृतियों को निरस्‍त कर हम एक खांसते हुए आदमी को देख रहे थे, जो पास में रखे अपने बैग से कुछ निकालने की कोशिश में और दोहरा हो रहा था. उस लड़की ने किताब परे की और उस बैग से उसे कुछ निकालने में मदद करने लगी. उस आदमी ने हाथ को मुंह के पास ले जाकर कुछ इशारा किया. उस लड़की ने बैग पूरी तरह अपने हाथ में ले कुछ पलों के बाद एक इन्‍हेलर निकाला. आदमी ने उसे मुंह के भीतर लेकर स्‍प्रे जैसा किया. उसके सांस और खांस थिर होने लगे. वह इस तरह हांफ रहा था, जैसे बहुत दौड़ा हो, बिना यह जाने कि कहां जाने के लिए इस तरह दौड़ा. शीतल हवा में भी उसके माथे पर पसीना था. उसकी आंखों के पास से पानी बह रहा था, जो खांसी का आंसू होगा. लड़की ने उसे ऊपर टंगा हुआ नैपकिन उतार कर दिया.
डिब्‍बे का दरवाज़ा जितनी बार खुलता, उतनी बार शोर का बगूला घुसता. हम उतनी बार दरवाज़े की ओर देखते.

आईना बन गई खिड़की से मैं उस लड़की को उस आदमी का बैग बंद करते, फिर सहेज कर रखते देखता रहा. वह आदमी पीठ टिकाए आंख बंद किए था. आंख बंद करने पर जो अंधेरा दिखता है, वह उतना गाढ़ा नहीं होता. लड़की ने उसे एक पल को उठने को कहा. फिर सीट गिरा दी. वह उस पर लेट गया. मेरे सामने वाले ने उस लड़की से कहा, भाभीजी, आप चाहें, तो इन्‍हें यहां लिटा सकती हैं. यहां डिस्‍टर्ब नहीं होगा. वह लड़की मुस्‍कराई और उसके पैर की ओर बैठ गई. मैंने आईने में उसे उसकी पत्‍नी की तरह देखा.

बीच-बीच में वह किताब से चेहरा निकालती और उस आदमी के चेहरे को देख लेती. और एकाध बार उसके माथे से पसीना पोंछ देती. उसका सूती दुपट्टा उस आदमी की आंखों पर था.

मैं कभी आईने में और कभी गरदन फिराकर उसे देखता रहा. उसे पता नहीं चल पाया होगा कि मैं उसे दो तरफ़ से देख रहा हूं. वह किताब के भीतर और सीट पर देखती रही. इस बीच वह मोबाइल पर एसएमएस पढ़ती और जवाब देती रही.

क़रीब एक घंटे बाद स्‍टेशन आया. उसने सीट के नीचे से अपना बैग निकाला. कोई नंबर डायल किया और अपने डिब्‍बे का नंबर बताने लगी. उठते समय उसने लेटे हुए उस आदमी का कंधा हिलाकर कहा, अब आप पैर फैलाकर सो जाइए.

कांच का दरवाज़ा खोलकर वह डिब्‍बे से बाहर हो गई. वहां उतरने के लिए कुछ लोग दरवाज़े के पास सामान रखकर खड़े थे.