Saturday, April 24, 2010

जुगनू


बहुत पहले दुनिया में सिर्फ़ रात थी, मेरी कंखौरियों में मिट्टी के दिए चिपके थे. मैं उड़ने के लिए हाथ उठाता, दिए अपने आप बल उठते. रोशनी की फुहार उठती, बरसती. मैं हाथ नीचे करता, अंधेरा फिर हो जाता. मुझे इस तरह देखने के बाद ईश्‍वर ने जुगनू बनाए.

फिर भी उड़ने का हुनर मुझे कभी न आया. न ही रोशनी का भंडारगृह बन पाया.

जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी अंधेरा दिखता है. 




(मोत्‍सार्ट सिंफनी नंबर 1)


Thursday, April 1, 2010

अलसाहट के बीच दस साल पुरानी तस्‍वीर

'मेरे मन टूट एक बार सही तरह, अच्‍छी तरह टूट मत झूठमूठ ऊब मत रूठ, मत डूब सिर्फ़ टूट'

रघुवीर कह गए थे. मन टूटा हुआ है, जबकि चाह थी कि ये दिन टूटें. इन दिनों को घुटने पर रखकर ऐसा झटका मारा जाए कि टूटकर दो टुकड़े हो जाएं. दिन नहीं टूट रहे. घुटना टूट रहा है. मन मेल्‍या पहले से टूटा हुआ है. या तो करने-कहने को कुछ बचा ही नहीं है या जो बचा है, उसे कहना-करना नहीं है. कैसी ट्रैजडी ही नीच!

दस साल पुरानी एक तस्‍वीर मिली है, दो दिन से दिल इसे ही घूरे जा रहा है. क्‍या पता, घूरे पर जा रहा है? अप्रैल 2000 है, नासिक का नज़ारा है, पीछे गोदावरी में डुबकियां लग रही हैं और तस्‍वीर के बाहर मन से कहा जा रहा है- मत डूब सिर्फ़ टूट.